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सम्पत्ति-शास्त्र।

वात यह है कि कम्पनी विश्वसनीय होनी चाहिए । इस देश में नई नई कम्पनियों के व्यवस्थापत्र निकला करते हैं। किसी किसी का नाम ते व्यवस्थापनोंही तक रहता है, आगे जाताही नहीं । कोई कोई कुछ दिन तक चल कर टार उलट देती हैं। उनका दिवाला हो जाता है। कोई कोई दो चार वर्ष चलती तो है; पर उन्हें लाभ नहीं होता, बहुधा घाटाही हुआ करता है। अतएव उन्हें भी अपना बही खाता लपेट कर कारोबार बन्द करना पड़ता है। इससे ऐसी कम्पनियों के विषय में इस देश के पूँजीवालों का विश्वास जाता सा रहा है। इसके कारण हैं, जिनका विचार आगे चल कर एक अलग परिच्छेद में हम करेंगे । परन्तु ऐसी घटनाओं से इस सिद्धान्त में बाधा नहीं पाती किसम्भूय समुत्थान की बदौलत पूंजी की वृद्धि होती है।

अमेरिका और योरप व्यापार में बहुत बड़े चढ़े हैं । वहां इतनी पूंजी है जिसका अन्त नहीं। उस पूँजो से पार पार देशों का भी काम निकलता है। वहां के किसी किसी सम्पत्तिशास्त्रवत्ता की राय है कि बड़े बड़े व्यापारों में बाटा होना, बड़े बड़े कारोबार करनेघालों का दिवाला निक- लना, और बड़े बड़े आदमियों का लाखों करोड़ों रुपये फ़िजूल खर्च करना देश के लिए बुरा नहीं, अच्छा है। वे कहते हैं कि यदि इस तरह पूँजी कम न हो जायर करेगी तो उसका अतिरेक हो जायगा । वह इतनी बढ़ जायगी कि उस सवका उपयोगही न हो सकेगा । उसका बहुत कुछ अंश वकार पड़ा रहेगा। इससे बेहतर है कि पूर्वोक्त प्रकारों से वह कम हो जाय । परन्तु यह भ्रम है। वर्तमान काल और भविष्य में सम्पत्ति की उत्पत्ति के लिए जो सञ्चय किया जाता है उसी का नाम पूंजी है। और पूँजी का वर्च मजदूरों के पालन-पोषण तथा कलें आदि खरीदने और इमारत आदि बनाने में होता है। यह जितनीही अधिक न होगी उतनाही अधिक व्यापार और व्यवसाय बढ़ेंगे-उनको तरकी होगी 1 यही नहीं, किन्तु पार भी नये नये व्यापार होने लगेंगे । इससे अस्थायी पूँजी बढ़ जायगी और मजदूरों को अधिक मज़दूरी सिलने लगेगी | फल यह होगा कि उनकी दशा सुधर जायगी और मेहनत मजदूरी करनेवाले आदमियों की दशा का सुधारना मानों देश की दशा का सुधारना है। सभ्य, शिक्षित और सुधरे हुए देशों में पूँजी कभी बेकार नहीं रह सकती। और, यदि मतलब से ज़ियादह हो भो जाय तो सभ्यता को. सस्त्री फिजूल खची उसे कम किये बिना नहीं रहती। --