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सम्पत्ति-शास्त्र

अर्थ में भी क़ीमत, मूल्य या मोल ही शब्द लिखेंगे, क्योंकि "Value" का अर्थ-बोधक "मालियत" या "क़दर" शब्द व्यापार और उद्योग-धन्धे की बातों में कम आता है।

 

 

तीसरा परिच्छेद।

सिक्का।

समाज की आदिम अवस्था में चीज़ों का हमेशा अदला-बदल होता है। यह बात बतलाई जा चुकी है। इससे अब इस विषय में और कुछ कहने की ज़रूरत नहीं है। अदला-बदल करने में बहुत तकलीफ़ें होती हैं। वक्त भी बहुत खराब होता है। इसी से पदार्थों के मूल्य के दर्शक रुपये था सिक्के की सृष्टि हुई है। इससे लेन देन में बड़ा सुभीता होता है। किसान खेती की पैदावार के बदले, मज़दूर मज़दूरी के बदले, बुद्धिजीवी बुद्धि के बदले, गुणवान् गुण के बदले रुपया पैसा लेने में जरा भी संकोच नहीं करते। सब रुपये को चाहते हैं। सब द्रव्य की अभिलाषा रखते हैं। इसका कारण यह है कि रुपया दिखलाते ही सारी व्यावहारिक चीज़ें बाज़ार में मिल सकती हैं। अतएव रुपया पैसा एक प्रकार का टिकिट या हुक्मनामा है जिसके प्रभाव से आदमी को खाने, पीने, पहनने, ओढ़ने आदि की सामग्री आसानी से प्राप्त हो सकती है। इसी से सब लोग रुपये का इतना आदर करते हैं। सभ्य-समाज के प्रत्येक आदमी को जो रुपये की इतनी चाह रहती है उसका यही कारण है कि उसकी बदौलत उनकी आवश्यकतायें दूर हो सकती हैं। यदि रुपया पदार्थों के मूल्य का निदर्शन रूप न मान लिया जाता, यदि उसमें व्यावहारिक चीजों के प्राप्त करने की शक्ति न होती तो उसे कोई न पूँछता—या उसकी कुछ भी क़दर न होती।

द्रव्य अर्थात् रुपये पैसे में निज का कोई गुण नहीं है। उसके किसी जातीय गुणों के कारण उसकी क़दर नहीं होती। यदि किसी रेगिस्तान, था समुद्र में जाते हुए जहाज़, में किसी के पास करोड़ रुपये भी हों, पर वहाँ व्यवहार की चीज़ों का अभाव हो; अतएव रुपया खर्च करने पर भी वे न मिल सकती हों; तो रुपये से कोई लाभ न हो। आदमी भूखों मर जाय। रुपये में यद्यपि प्रयोजनीय चीजें प्राप्त करने की शक्ति है, तथापि वह शक्ति