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२४. पत्र: रणछोड़लाल पटवारीको

बम्बई

५ सितम्बर, १८९२

प्रिय भाई पटवारी,

आपके कृपापत्र और मुझे दी हुई सलाहके लिए धन्यवाद !

मैंने अपने पिछले पोस्टकार्ड में आपको लिखा ही था कि मुझे वकालतके लिए विदेश जाना स्थगित कर देना पड़ा है। मेरे भाई उसके बहुत खिलाफ हैं। उनका खयाल है कि मैं काठियावाड़में खासी-अच्छी आजीविका कमा सकता हूँ--सो भी सीधे तिकड़मबाजीमें पड़े बगैर; इसलिए इस विषयमें मुझे हताश नहीं होना चाहिए। कुछ भी हो, उन्हें आशा है और चूंकि मेरी ओरसे हर तरहका लिहाज पानेका हक है। इसलिए मैं उनकी सलाह मानूंगा। यहाँ भी मुझे कुछ कामका वादा मिला है। इसलिए मैने कमसे-कम दो महीने यहाँ रहनेका इरादा किया है। कोई साहित्यिक नौकरी मंजूर कर लेनेसे मेरे कानूनी अभ्यासमें बाधा पड़ेगी, ऐसा मुझे नहीं लगता। उलटे, ऐसे कामसे मेरा ज्ञान बढ़ेगा। वह वकालतमें अप्रत्यक्ष रूपसे सहायक हुए बिना नहीं रह सकता। फिर, उसके द्वारा मैं ज्यादा एकाग्र चित्तसे, चिन्तामुक्त रहकर काम कर सकूँगा। परन्तु जगह है कहाँ ? कोई जगह पा लेना आसान थोड़े ही है।

बेशक, मैंने कर्ज आपके राजकोटमें किये हुए वादेके बलपर ही माँगा था । मैं पूरी तरहसे सहमत हूँ कि आपके पिताजीको इसका पता नहीं चलना चाहिए। परन्तु अब उसकी चिन्ता न कीजिए। मैं किसी दूसरी जगह कोशिश कर लूंगा। मेरे लिए समझना कठिन नहीं है कि आपके पास एक वर्षको वकालतसे बहुत बड़ी रकम नहीं बच सकती।

मेरे भाई सचीनमें नवाबके सचिवके पदपर रख लिये गये हैं। वे राजकोट गये है और कुछ दिनोंमें लौटेंगे।

काशीदाससे यह जानकर खुशी हुई कि वे धंधुकामें बसनेवाले हैं।

जाति-विरोध हमेशाके समान ही जोरदार है। सारी बात एक आदमीपर निर्भर है। वह मुझे जातिमें शामिल न होने देनेकी शक्ति-भर कोशिश करेगा। मुझे अपने लिए इतना दुःख नहीं, जितना अपने जातिभाइयोंके लिए है। वे तो भेड़ोंकी तरह एक आदमीके संकेतपर चलते हैं। कुछ निरर्थक प्रस्ताव पास करते रहते हैं और अपने इस कर्त्तव्य-पालनमें अति करके अपनी ईर्ष्याका साफ-साफ परिचय दे रहे हैं। उनके तर्कोंमें धर्म तो है ही नहीं। क्या सिर्फ इसलिए कि मैं भी उनमें से ही एक माना जाऊँ, उनके सामने गिड़गिड़ाना और उनकी कीर्तिको बढ़ाना उचित है ? उनसे अलग ही रहना ज्यादा अच्छा नहीं है? फिर भी, मुझे जमानेके साथ चलना होगा।

१. राजकोटके