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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

इन परोपजीवियों" के सम्बन्धमें आपका अग्रलेख कठोर शब्दोंकी प्रतिद्वन्द्वितामें श्री पिल्लको मात नहीं दे देगा! तथापि, शैली सम्बन्धी रुचियाँ भिन्न होती है और मैं किसीकी लेखन-शैलीके गुण-अवगुणका निर्णय करने नहीं बैलूंगा।

परन्तु बेचारे एशियाई व्यापारियोंपर यह क्रोध क्यों उगला गया? उपनिवेश पर अक्षरशः सत्यानाशका खतरा कैसे उत्पन्न हो गया है, यह समझना तो कठिन है। आपके १५ तारीखके अग्रलेखसे मैं इसके जो कारण समझ पाया हूँ उसका सार इन शब्दोंमें रखा जा सकता है--"एक एशियाई दिवालिया हो गया है और उसने पाँच पेंस फी-पौंड भुगतान किया है। यह एशियाई व्यापारियोंका एक काफी सच्चा नमूना है। उन्होंने छोटे-छोटे यूरोपीय व्यापारियोंको खदेड़ दिया है।"

अब, जरा मान लें कि एशियाई व्यापारियोंमें से अधिकतर दिवाला निकाल देते हैं और अपने लेनदारोंको बहुत कम पैसा चुकाते हैं (जो सच बिलकुल नहीं है), तो भी क्या उन्हें उपनिवेशसे या दक्षिण आफ्रिकासे खदेड़ देनेके लिए यह कारण काफी है? क्या इससे यह ज्यादा स्पष्ट नहीं दिखलाई पड़ता कि दिवाला-सम्बन्धी कानूनमें कुछ खामी है, जिससे कि वे अपने लेनदारोंको इस तरह बरबाद कर सकते है ? अगर कानून इस तरहके कामोंके लिए जरा भी गुंजाइश देगा तो लोग उसका फायदा लेंगे ही। क्या यूरोपीय लोग दिवाला-अदालतका संरक्षण नहीं मांगते? इसका यह अर्थ नहीं कि मैं "तू भी तो करता है"--इस तर्कका आश्रय लेकर भारतीयोंकी सफाई दे रहा हूँ। मुझे तो हार्दिक खेद है कि भारतीय ऐसे तरीकोंका जरा भी आश्रय लेते ही क्यों हैं। यह उनके देशके लिए लज्जास्पद है। उनके देशको तो किसी समय अपनी प्रतिष्ठाका इतना अधिक खयाल था कि वह व्यापारमें बेईमानीसे सरोकार रख ही नहीं सकता था। फिर भी, यह तो मुझे दीखता ही है कि अगर भारतीय व्यापारी दिवाला कानूनका लाभ उठाते हैं तो इससे उन्हें देशसे निकाल देनेका मामला नहीं बन पड़ता। दिवाला निकालनेकी घटनाओंकी पुनरावृत्ति कानूनके द्वारा रोकी जा सकती है। इतना ही नहीं, थोक व्यापारी भी कुछ अधिक सावधानी बरतकर उन्हें रोक सकते हैं। और, बहरहाल, उन व्यापारियोंको यूरोपीय व्यापारियोंसे उधारी मिलती है; क्या यह हकीकत ही साबित नहीं कर देती कि, आखिरकार, वे उतने खराब नहीं हैं, जितना खराब आपने उन्हें चित्रित किया है ?

अगर छोटे-छोटे यूरोपीय व्यापारी अपना व्यापार समेट लेनेको बाध्य हो गये हैं तो इसमें उनका क्या अपराध ? इससे तो भारतीय व्यापारियोंकी अधिक वाणिज्य-कुशलताका ही परिचय मिलता है। और, आश्चर्य है कि उनकी यही बेहतर कुशलता उनके निकाले जानेका कारण बननेवाली है। मैं आपसे पूछता हूँ, महोदय, कि क्या यह न्यायसंगत है ? अगर कोई सम्पादक अपने पत्रका सम्पादन अपने प्रतिद्वन्द्वीकी अपेक्षा अधिक कुशलतासे करता है और इसके फलस्वरूप अपने प्रतिद्वन्द्वीको क्षेत्रसे भगा देता है तो पहले सम्पादकको यह कहना कैसा लगेगा कि वह अपने चारों खाने चित्त प्रतिद्वन्द्वीके लिए जगह खाली कर दे, क्योंकि वह (सफल सम्पादक) योग्य है ? क्या अधिक योग्यता प्रोत्साहनका विशेष कारण नहीं होनी चाहिए, ताकि दूसरे भी