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लन्दन-संदर्शिका

पुस्तिका लिखनेसे कोई लेखक नहीं बन जाता। लेखक तो ज्यादा कठोर धातुके बने होते हैं।

यह तो सभी लोग एकदम मान लेंगे कि पिछले बीस वर्षों या उससे भी ज्यादा समयसे भारतीय इंग्लैंड भले ही आ-जा रहे हैं, किन्तु ऐसी पुस्तिका लिखनेका अभी तक कोई प्रयत्न नहीं किया गया। इंग्लैंड या अन्य स्थानोंमें क्या-क्या देख सकते है, इसका प्रभावपूर्ण वर्णन करते हुए कुछ लोगोंने पुस्तकें जरूर प्रकाशित की हैं। लेकिन उनमें इससे ज्यादा कुछ नहीं दिया गया। उन्हें पढ़नेवाला व्यक्ति भी दुविधा-में ही पड़ा रहता है; क्योंकि उन्हें पढ़कर इंग्लैंड जानेकी इच्छा तो होती है पर जा कैसे सकते हैं, इसके बारेमें उनमें कुछ नहीं बताया गया है। बीसियों भारतीय बैरिस्टर बन गये, पर उनमें से किसीने भी अपने देशवासियोंको अभीतक यह बताने- का साहस नहीं किया कि उन्होंने इंग्लैंडमें अपना निर्वाह किस प्रकार किया। जब मैं वहाँ था, अकसर मित्रोंके पत्र मुझे मिलते रहते थे जिनमें किसी-न-किसी बातकी।जानकारी मांगी जाती थी। यहाँ जो लोग मिले वे मुझसे सिर्फ इंग्लैंडके विषयमें ही पूछ-ताछ करते रहे। जिससे मैं कभी-कभी सचमुच ऊब ही गया हूँ। उन्होंने जिस उत्सुकतासे सब बातें सुनीं वही इस सरल संदर्शिकाके प्रकाशनका औचित्य सिद्ध करनेके लिए काफी है।

इसमें कोई शक नहीं कि ऐसी पुस्तकके जनताके सामने बहुत पहले न आ सकनेके कई कारण हैं। विस्तृत विवरण देनेके लिए ऐसी पुस्तिकामें कई महत्त्वपूर्ण बातें बताना जरूरी होगा। मैं जानता हूँ और मुझे इस बातका दुःख है कि शायद इन बातोंके प्रकाशनसे बेकारमें कुछ बहस-मुबाहिसा शुरू हो जायेगा; और कुछ लोग तो इन बातोंका प्रकाशन कभी पसन्द नहीं करेंगे। इंग्लैंडमें सामान्य व्यक्तियों और विद्यार्थियों, दोनोंकी गतिविधियाँ यहाँके लोगोंकी आँखोंसे ओझल हैं। उदाहरणके लिए कोई भी व्यक्ति निश्चित रूपसे नहीं जानता कि इंग्लैंडमें भारतीय क्या खाते हैं, कहाँ रहते हैं;


प्रश्नोंका उत्तर देने का प्रयत्न किया जो लौटनेपर उनसे पूछे गये थे।... ऐसा प्रतीत होता है कि कमसे-कम उसका कुछ भाग १८९३ के उत्तराद्ध और १८९४ के पूर्वार्द्ध में लिखा गया। . . उन्होंने इसे कभी प्रकाशित नहीं कराया" (अली फेज, पृष्ठ ३१६)।

प्रस्तावनामें गांधीजीने लिखा है : “ यहाँ जो लोग मिले वे मुझसे सिर्फ इंग्लैंडके विषयमें ही पूछ-ताछ करते रहे। जिससे मैं कभी-कभी सचमुच ऊब ही गया हूँ।" वाक्यमें 'यहाँ' शब्दसे तात्पर्य स्पष्ट ही भारतले है। किन्तु यह मालूम नहीं कि प्रस्तावना पुस्तिका लिखनेसे पहले लिखी गई या बादमें, किन्तु मान सकते हैं कि गांधीजीने इसे १८९३ में दक्षिण आफ्रिकाके लिए रवाना होनेसे पूर्व लिखना शुरू किया होगा। गांधीजीने लिखा है: “एक कोट जो अब पाँच साल पुराना है", उन्होंने १८८८ में लन्दन पहुँचनेपर खरीदा दोगा; देखिए पृष्ठ ८० ।

इस पाण्डुलिपिकी खोजके बारेमें प्यारेलाल लिखते हैं : “जब मैं १९२० में साबरमती पहुँचा तो कुछ समय बाद ही सत्याग्रहाश्रमके बुनाई-घरके फर्श पर बिखरे हुए कागजोंके ढेर में मुझे यह पाण्डुलिपि मिली। गांधीजोको दिखानेपर उन्होंने कहा कि दक्षिण आफ्रिकामें मेरा एक क्लर्क जो सुन्दर लेख नहीं लिखता था उसने मेरे अनुरोधपर अपना लेख सुधारने के लिए यह प्रति तैयार की थी। दुर्भाग्यसे परिशिष्टके कुछ पृष्ठ उपलब्ध नहीं हैं। मूल प्रति कहीं नहीं मिली" (अर्ली फेज)।