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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

कामसे मनुष्यका मस्तिष्क भी कुंठित हो जाता है। ऑक्सफोर्ड और कैम्ब्रिजमें दी जानेवाली शिक्षामें मेहनत और मनोरंजन दोनोंको स्थान दिया गया है। मुझे लगता है कि वहाँके विश्वविद्यालयोंमें गवेकी तरह जुटे नहीं रहना पड़ता जैसा कि दुर्भाग्यसे यहाँपर करना होता है।

शिक्षाके विभिन्न केन्द्रोंके बारेमें विस्तृत जानकारी देना असम्भव होगा। उनके सिर्फ नाम ही सूचित किये जा सकते हैं। इन संस्थाओंके मंत्रियोंको पत्र लिखने पर वे नियमावलि भेज देंगे और उससे पूरी जानकारी मिल सकती है। एडिनबरा भी भारतीयोंका प्रिय स्थान बन गया है, जिनमें ज्यादातर चिकित्सा-शास्त्रके विद्यार्थी हैं। एडिनबराका चिकित्सा-शास्त्रका पाठ्यक्रम अपेक्षाकृत बहुत आसान है। लन्दनका पाठयक्रम तो सबसे कठिन है। डरहम विश्वविद्यालयसे भी चिकित्सा-शास्त्र की उपाधि प्राप्त हो सकती है।

कोई यह कह सकता है कि इन सबकी शिक्षा यहाँ भी पा सकते हैं और उसमें खर्च भी कम होगा। मैं पहली बात स्वीकार करता हूँ, पर दूसरी नहीं। फिर यहाँ भी वही शिक्षा प्राप्त कर सकते हैं, सिर्फ इतना ही काफी नहीं है। सवाल तो यह है कि कौन-सी शिक्षा श्रेष्ठ है। क्या इंग्लैंडमें दी जानेवाली हर तरहकी शिक्षा भारतसे ज्यादा श्रेष्ठ नहीं है ? क्या मनुष्य इंग्लैंडमें उतने ही समयमें भारतसे ज्यादा नहीं सीख सकता? अंतिम कथन तो स्वतःसिद्ध है। यहाँपर विद्यार्थी, विद्यार्थी भी है और सामान्य व्यक्ति भी। हो सकता है वह विवाहित भी हो। उस दशामें गृहस्थीके उन अन्य बोझोंके साथ-साथ जो सामान्यत: उसपर लदे होते है, उसे अपनी पत्नी और शायद बच्चोंका विचार भी करना पड़ता है। उधर इंग्लैंडमें वह अकेला होता है, तंग करने या प्यार करनेके लिए पत्नी पास नहीं होती, लाड़ करने-वाले माता-पिता नहीं होते, किन्हीं बच्चोंकी सार-संभाल नहीं करनी पड़ती और परेशान करनेवाले कोई साथी नहीं होते। सारा समय उसका अपना होता है। इसलिए यदि उसमें इच्छा-शक्ति हो तो वह वहाँ ज्यादा काम कर सकता है। इसके अलावा इंग्लैंडकी स्फूर्तिदायिनी जलवायु ही परिश्रम करने के लिए काफी प्रोत्साहन देती है जब कि भारतकी निस्तेज करनेवाली जलवायु निठल्ले बने रहने में सहायक होती है। गर्मीकी दोपहर खाली गँवानेका काम किसने नहीं किया? किसने ऐसी इच्छा कभी न की होगी कि काश, गर्मीके दिनोंमें सोनेके अलावा कुछ काम न होता । बेशक, भारतमें भी ऐसे लोग तो है जो काममें लगे ही रहते हैं। सच तो यह है कि सबसे परिश्रमी विद्यार्थी भी भारतमें ही मिलते हैं। पर वे जो इतना काम करते हैं, सो अपनी इच्छाके विरुद्ध करते हैं। इंग्लैंडमें खाली बैठना सम्भव नहीं है। वहाँ काम करना अच्छा लगता है, इसीलिए आप काम करते हैं और उसके बिना खाली बैठे नहीं रह सकते। मैने सुना है कि एक बहुत विद्वान् प्रोफेसरने कहा है कि उन्होंने तीन वर्षमें जितना इंग्लैंडमें पढ़ा, उतना शायद वे भारतमें नौ वर्षों में पढ़ पाते। जितना काम भारतमें करनेसे स्वास्थ्य को हानि होती है, उतना इंग्लैंडमें आसानीसे किया जा सकता है। एक उदाहरण तो हमारे सामने ही है। क्या हम गर्मियोंकी अपेक्षा