पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 1.pdf/१६

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आठ

किया किन्तु श्रद्धा क्षीण मनोंको वह एक उदात्त आदर्श ही प्रतीत होता रहा। उन्हें उसके आचारमें उतारनेकी सम्भावना दिखाई नहीं पड़ी। हमें इसी रोशनीमें उनके आश्रममें रहनेवालोंके नियमों और उन व्रतोंको समझना है, जिन्हें प्रतिदिन सुबह-शाम प्रार्थनाके समय दुहराया जाता था। वे थे: अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, असंग्रह, शरीरश्रम, अस्वाद, निर्भयता, सर्वधर्म-समभाव, अस्पृश्यता-निवारण और अपने कर्तव्य-पालनमें स्वदेशीकी भावनाका प्रयोग।

मैं अपनी बात इस आश्वासनके साथ समाप्त करूँगा कि जो भी गांधीजीकी जीवन-सरितामें, जैसी कि वह इस ग्रंथमालामें प्रकट हुई है, डुबकी लगायेगा, निराश नहीं होगा। क्योंकि उसमें एक ऐसा खजाना समाया हुआ है, जिससे हरएक व्यक्ति अपनी शक्ति और श्रद्धाके अनुसार, जितना चाहे उतना ले सकता है।

राजेन्द्रप्रसाद

राष्ट्रपति भवन

नई दिल्ली

१६ जनवरी, १९५८