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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

सराहनकी योग्यता न दिखा सका हो, फिर भी, प्रार्थी मानते हैं कि यदि वह दूसरी दृष्टियोंसे योग्य हो तो परिषद उसे अयोग्य ठहराकर मताधिकारसे वंचित न करेगी।

(१३) इसे पूरा करनेके पहले प्रार्थी आपको परिषदका ध्यान लॉर्ड मेकॉलेके निम्नलिखित स्मरणीय शब्दोंकी ओर आकर्षित करते हैं: हम स्वतन्त्र और सभ्य है; परन्तु यदि मानव जातिके किसी भागको स्वतन्त्रता और सभ्यताका समान अंश देने में हम आपत्ति करते हैं तो हमारी स्वतन्त्रता और सभ्यता व्यर्थ है।

(१४) प्रार्थियोंको हार्दिक विश्वास है कि उपर्युक्त तथ्य तथा तर्क कुछ और भले ही सिद्ध न कर सकें, वे इतना तो सन्तोषप्रद रूपमें सिद्ध कर ही देंगे कि भारतीयोंकी मताधिकार प्राप्त करनेकी योग्यता-अयोग्यताकी जाँचके लिए एक आयोग नियुक्त करनेकी सच्ची आवश्यकता है। यदि भारतीयोंको मताधिकार दे दिया गया तो उनके मत यूरोपीयोंके मतोंको निगल जायेंगे और शासनकी बागडोर उनके हाथोंमें चली जायेगी -- क्या इस भयका कोई आधार है ? इसकी जाँचके लिए तथा अन्य महत्त्वपूर्ण प्रश्नोंपर रिपोर्ट देनेके लिए भी जाँच-आयोगकी नियुक्ति आवश्यक है--यह भी उपर्युक्त तर्कों तथा तथ्योंसे सिद्ध हो जायेगा। इसलिए प्रार्थी विनती करते हैं कि आपकी परिषद जो सिफारिशें न्यायपूर्ण और उचित समझे उनके साथ विधेयकको विधानसभाके पास पुनर्विचारके लिए वापस भेज दे।

न्याय तथा दयाके इस कार्यके लिए प्रार्थी, कर्तव्य समझकर, सदा दुआ करेंगे, आदि।

[अंग्रेजीसे]

कलोनियल ऑफिस रेकर्ड्स, सं० १८१, खण्ड ३८

४३. पत्र:'नेटाल मर्युरी' को

[१]

डर्बन

७ जुलाई, १८९४

सेवामें

सम्पादक

नेटाल मयुरी'

महोदय,

आपका आजके अंकका विद्वत्तापूर्ण और समर्थ अग्रलेख पढ़कर बड़ा आनन्द आया। ऐसी तो आशा ही नहीं थी कि मताधिकार सम्बन्धी प्रार्थनापत्रके विरुद्ध कुछ

  1. १. मताधिकार कानून संशोधन विधेषकके सम्बन्धमें भारतीय समाजने नेटाल विधानपरिषदको जो प्रार्थनापत्र दिया था उसपर ७ जुलाई, १८९४ के नेटाल मयुरीमें “ भारतीय ग्राम समाज" शीर्षकसे एक लम्बा अग्रलेख प्रकाशित हुआ था। उसमें यह दलील दी गई थी कि जिसे आज संसदीय शासन समझा जाता है वह भारतके ग्राम-समाजों में प्रचलित प्रातिनिधिक संस्थाओंके किसी भी स्वरूपसे भिन्न है। विधेयकमें भारतीयोंको इस आधारपर मताधिकारसे वंचित रखा गया था कि उन्होंने अपने देशमें