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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

(१०) बहस और विधेयककी प्रस्तावनाम कहा गया है कि एशियाई लोगोंने कभी मताधिकारका उपभोग नहीं किया है। बहसमें तो यह भी कहा गया था कि एशियाई लोग मताधिकारका उपभोग करने के योग्य ही नहीं है। उस समय भारतीयोंको मताधिकारसे वंचित रखने के लिए यही दो मुख्य कारण बताये गये थे। प्रार्थियोंका विश्वास है कि विधानसभाको दिये गये प्रार्थनापत्रसे इन दोनों आपत्तियोंका पूरी तरह निराकरण हो जाता है।

(११) यद्यपि खुले तौरसे यह स्वीकार नहीं किया गया कि एशियाइयोंके मताधिकारके सम्बन्धमें दोनों आपत्तियाँ ढह गई हैं, फिर भी दिखाई तो यह पड़ता है कि भीतर ही भीतर इस बातको मंजूर कर लिया गया है। कारण, विधानसभामें विधेयकके दूसरे वाचनके समय तो कहा गया था कि भारतीयोंको मत देनेसे वंचित रखना नीति तथा न्यायके आधारपर उचित है, परन्तु तीसरे वाचनमें खुले तौरपर उसे शुद्ध राजनीतिक आधारपर उचित बताया गया। तीसरे वाचनके समय कहा गया कि अगर भारतीयोंको मत देनेका अधिकार दिया गया तो उनके मत यूरोपीयोंके मतोंको निगल जायेंगे और यूरोपीयोंके राज्यके बदले भारतीयोंका राज्य स्थापित हो जायेगा।

(१२) प्रार्थी दोनों सदनोंके प्रति अधिकतम आदरके साथ निवेदन करते है कि उपर्युक्त भय बिलकुल निराधार है। आज भी यूरोपीय मतदाताओंकी तुलनामें भारतीय मतदाता बहुत कम हैं। जो भारतीय गिरमिटमें बँधकर आते हैं उनमें गिरमिटकी अवधिके अन्दर और उसके बाद भी अनेक वर्षांतक मताधिकारके लिए काफी साम्पत्तिक योग्यता नहीं हो सकती। फिर, यह भी एक जानी हुई बात है कि जो लोग अपने खर्चसे आते हैं वे हमेशाके लिए उपनिवेशमें नहीं रहते । वे कुछ वर्षों के बाद स्वदेश वापस चले जाते हैं और उनके बदले दूसरे भारतीय आते हैं। इस तरह जहाँतक व्यापारी वर्गका सम्बन्ध है, उसके मतोंकी संख्या हमेशा उतनी ही बनी रहेगी। इसके अलावा, यह बात भी भुलाई नहीं जा सकती कि यूरोपीय समाज उपनिवेशके राजनीतिक कामोंमें जितनी सक्रिय दिलचस्पी रखता है उतनी भारतीय समाज नहीं रखता। ऐसा मालूम होता है कि उपनिवेशमें ४५,००० यूरोपीय और उतने ही भारतीय हैं। यह हकीकत ही बता देती है कि यूरोपीय और भारतीय मतोंमें कितना बड़ा अन्तर है। प्रार्थी निवेदन करते है कि अभी अनेक पीढ़ियोंतक किसी भारतीयका नेटालकी संसदमें प्रविष्ट होनेकी आशा करना असम्भवप्राय है। इसको सिद्ध करने के लिए किसी प्रमाणकी आवश्यकता है, ऐसा नहीं लगता।

(१३) और अगर महानुभावके प्रार्थी मताधिकारका प्रयोग करनेके लिए अयोग्य न हों और उन्हें उपनिवेशके शासनमें--और विशेषतः अपने ही ऊपर शासन करने--में कुछ भाग मिले तो क्या कोई हर्ज है ?

(१४) प्राथियोंका निवेदन है कि विधेयकका स्वरूप प्रतिगामी है, और वह स्पष्टतः अन्यायपूर्ण है।

(१५) जिन लोगोंके नाम वाजिब तौरसे मतदाता-सूचीमें दर्ज हैं उन्हें रहने देनेकी बातसे ही, प्रार्थियोंकी नम्र रायमें, यह बात स्वीकृत हो जाती है कि मताधि-