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प्रार्थनापत्र : लोर्ड रिपनको

कारका उत्तरदायित्व और उसका हक समझनेकी योग्यता प्राथियोंमें मौजूद है। बहसके दौरान यह बतानेका प्रयत्न किया गया था कि प्रार्थी मत देनेके योग्य नहीं हैं, फिर भी उन्हें रहने दिया गया है। इसपर प्रार्थी विश्वास नहीं कर सकते।

(१६) यह भी कहा गया है कि विधेयककी दूसरी उपधारासे पूरा न्याय हो जाता है। प्राथियोंका निवेदन है कि ऐसी बात नहीं है। इसके उलटे, वह उन दोनोंकी भावनाओंको दुखानेवाला है, जो सूची में शामिल हैं, और जो नहीं हैं।

(१७) जिन लोगोंके नाम सूचीमें है उनके लिए यह कोई सन्तोषकी बात नहीं है कि वे स्वयं तो मत दे सकते हैं, परन्तु उनके बच्चे, भले वे कितने ही शिक्षित और सुयोग्य क्यों न हों, मत नहीं दे सकते। और यदि विधेयक कानूनमें परिणत हो गया तो वह उपनिवेशमें बसे भारतीय माता-पिताओंके अपने बच्चोंको ऊँची शिक्षा देनेके दृढ़से-दृढ़ उत्साहको भी हर लेगा। वे अपने बच्चोंको समाजमें बिना आदर-मानके या बिना महत्त्वाकांक्षाके, अछूतोंके समान जीवन बिताते देखना पसन्द नहीं करेंगे। अगर मनुष्यको समाजमें आदर-मान न मिले तो धन भी बेकार हो जाता है। इस तरह जिस विचारसे मनुष्य धन-दौलत इकट्ठी करता है, अंकुरित होते ही उसपर पाला पड़ जाता है।

(१८) फिर, जो लोग उपनिवेशमें आकर बसे है वे दूसरी उपधाराके प्रति यह जानकर खिन्न होते हैं कि जब उनके भाई उनसे किसी भी तरह बेहतर न होने-पर भी दैवयोगसे मत देनेका अधिकार रखते हैं, तब वे शायद सिर्फ इसलिए मत देनेके अधिकारी नहीं हैं कि वे अपने वशसे बिलकुल बाहरकी परिस्थितियोंके कारण मतदाता सूची में अपने नाम नहीं लिखा सके। इस प्रकार एक ही वर्गकी भारतीय ब्रिटिश प्रजाके बीच संयोगसे बनी परिस्थितियोंके आधारपर विधेयक ईजिनक भेद- भाव पैदा करता है।

(१९) यह संकेत भी किया गया है कि दूसरी उपधारा द्वारा जो न्याय हुआ है उसका प्रार्थियोंने उपकार नहीं माना। परन्तु दूसरी उपधारा दाखिल करने में सर-कारके न्यायके इरादेका अधिकतम आदर करते हुए भी कहना पड़ता है कि प्रार्थी उसमें न्याय देख नहीं सके। इसे स्वयं कुछ माननीय सदस्योंने भी स्वीकार किया था, क्योंकि उन्होंने दूसरी उपधाराके रहने-न-रहने के बारेमें इसलिए कोई चिन्ता व्यक्त नहीं की कि वे मत तो थोड़े समयमें उड़ जानेवाले है। यह तो स्वयं स्पष्ट दिखलाई पड़ता है।

(२०) दक्षिण आफ्रिकाके वतनियोंके साथ महानुभावके प्रार्थियोंकी बराबरी करनेका जो उत्साहपूर्ण प्रयत्न किया गया है, उसे प्राथियोंने शर्म और दुःखके साथ देखा है। बारंबार कहा गया है कि अगर भारतीयोंको सिर्फ इसलिए मत देनेका कोई हक है कि वे ब्रिटिश प्रजा है, तो वतनियोंको यह हक और भी ज्यादा है। प्रार्थी इस तुलनाकी कोई विवेचना करना नहीं चाहते, परन्तु सम्राज्ञीकी सन् १८५८ की घोषणा और महानुभावके भारतीय प्रजा-सम्बन्धी अनुभवकी ओर महानुभावका ध्यान अवश्य खींचते हैं। भारतीय और वतनी ब्रिटिश प्रजाको शासन-व्यवस्थामें जो स्पष्ट अन्तर है वह बताना शायद जरूरी नहीं है।