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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

(२१) अगर यह विधेयक कानून बन गया तो इस समय जो सैकड़ों शिक्षित भारतीय हैं, जिनके हस्ताक्षर इस प्रार्थनापत्रमें पाये जाते हैं, वे संसदीय चुनावोंमें मत नहीं दे सकेंगे। प्राथियोंको पूरा विश्वास है कि जिस विधेयकसे ब्रिटिश प्रजाके किसी भी वर्गके प्रति इतना गंभीर अन्याय होता हो, उसे मंजूर करने की सलाह महानुभाव सम्राज्ञीकी सरकारको नहीं देंगे।

(२२) २७ मार्च, १८९४ के 'नेटाल गवर्नमेंट गजट' में प्रकाशित १८९३की प्रवासी भारतीय स्कूल बोर्ड रिपोर्टसे मालूम होता है कि उस वर्ष २६ स्कूल थे, जिनमें २,५८९ विद्यार्थी पढ़ते थे। प्रार्थियोंका आदरपूर्वक निवेदन है कि ये बच्चे, जिनमें से अनेक इसी उपनिवेशमें जन्मे है, पूरी तरह यूरोपीय ढंगसे पाले-पोसे जाते है। आगेके जीवन में इनका सम्बन्ध मुख्यत: यूरोपीयोंके साथ होता है। इसलिए वे मताधिकारके लिए हर तरहसे उतने ही योग्य बन जाते हैं, जितना कि कोई यूरोपीय होता है। हाँ, उनमें मूलत: ही कोई कमी हो, जिससे वे शिक्षा-योग्यतामें यूरोपीयोंकी बराबरी न कर सकें, तो बात अलग है। परन्तु वे अयोग्य नहीं है, यह तो ऐसे विषयोंके बड़ेसे-बड़े पण्डितों द्वारा असंदिग्ध रूपमें सिद्ध किया जा चुका है। इंग्लैंड और भारत दोनोंमें ही अंग्रेज तथा भारतीय विद्यार्थियोंकी प्रतिद्वन्द्विताके परिणामोंसे इसका पर्याप्त प्रमाण मिल जाता है कि भारतीयोंमें यूरोपीयोंके साथ सफलतापूर्वक होड़ करनेका सामर्थ्य है। संसदीय समितिके सामने जो गवाहियाँ दी गई थीं उनके या इस विषयके महान लेखकोंकी रचनाओंके उद्धरण प्रार्थी जानबूझकर नहीं दे रहे हैं, क्योंकि वैसा करना भरी थालीमें परोसने जैसा व्यर्थ होगा। फिर अगर प्रार्थी मांग करते हैं कि इन लड़कोंको सयाने होनेपर मताधिकार दिया जाये, तो क्या वह एक ऐसी मांग नहीं है, जिसे किसी भी सभ्य देशमें कोई भी आदमी अपना जन्म-सिद्ध हक मानेगा, और जिनमें जरा भी हस्तक्षेप होनेपर उचित रीतिसे उसका मुकाबला करेगा? प्रार्थियोंका दृढ़ विश्वास है कि महानुभाव एक संसदीय संस्थाओं द्वारा शासित देशमें इन बच्चोंको साधारणसे-साधारण नागरिक अधिकारोंसे वंचित किये जाने के अपमानका भाजन न होने देंगे।

(२३) प्रार्थी माननीय श्री कैम्बेल और माननीय श्री डोनके कृतज्ञ हैं कि उन्होंने अपने खर्चसे आये हुए भारतीयोंका मताधिकार छीननेके अन्यायको समझा और उसकी आलोचना की। परन्तु वे भी दूसरे माननीय सदस्योंके समान यह मानते दीखते हैं कि जो लोग गिरमिटिया बनकर आये हैं उन्हें तो मताधिकार कदापि नहीं मिलना चाहिए। प्रार्थी स्वीकार करते है (यद्यपि वे यह कहे बिना नहीं रह सकते कि अगर कोई मनुष्य अन्यथा योग्य हो तो उसकी दरिद्रताको अपराध नहीं माना जाना चाहिए) कि गिरमिटिया भारतीयोंको गिरमिटकी अवधिमें भले ही मताधिकार न दिया जाये, परन्तु, अगर बादमें वे पर्याप्त योग्यता प्राप्त कर लें तो, हमारा नम्र निवेदन है कि उन्हें भी मत देनेके अधिकारसे सदैव वंचित नहीं रखा जाना चाहिए। जो ऐसे लोग यहाँ आते हैं वे साधारणतः हृष्ट-पुष्ट और नौजवान होते हैं। वे यूरोपीयोंके प्रभावमें आ जाते हैं और गिरमिटकी अवधि पूरी करते समय तथा, खास