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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

माना जायेगा। फिर भी, मैं आपको नम्रतापूर्वक विश्वास दिलाता हूँ कि मैं न तो स्वार्थ-भावसे लिख रहा हूँ, न अपना महत्त्व बढ़ाने या नाम फैलानेके लिए ही। मेरा एकमात्र उद्देश्य इस उपनिवेशके यूरोपीयों तथा भारतीयोंके बीच अधिक मेलजोल पैदा करना और भारतकी सेवा करना है, जो जन्म-संयोगके कारण मेरा स्वदेश कहलाता है।

यह एक ही तरीकेसे किया जा सकता है। वह तरीका है, लोकमतका प्रतिनिधित्व और निर्माण करनेवाले व्यक्तियोंसे अपील करनेका।

अतः यदि यूरोपीय और भारतीय निरन्तर झगड़ते रहें तो दोष आपके मत्थे होगा। अगर दोनों बिना संघर्षके, शान्तिसे, मिलजुलकर चलें और रहें, तो सारा श्रेय भी आपको ही मिलेगा।

सबूत देनेकी जरूरत नहीं कि सारी दुनियाकी सामान्य जनता बहुत बड़ी हद-तक अपने नेताओंके मतोंका अनुसरण करती है। ग्लैड्स्टनका मत आधे इंग्लैंडका मत है, और सेलिसबरीका मत शेष आधेका। जहाज घाटके मजदूरोंकी हड़तालके समय उनके निमित्त विचार करनेवाला बर्न्स[१] था। पार्नेलने लगभग पूरे आयरलैंडके निमित्त विचार किया। धर्मग्रंथ — मेरा मतलब सारी दुनियाके धर्मग्रंथोंसे है — यही कहते हैं। एडविन आर्नोल्डके' 'सॉंग सेलेस्टियल'[२] में कहा गया है — "बुद्धिमान लोग जो पसन्द करते हैं, दूसरे लोग उसे ग्रहण कर लेते हैं। श्रेष्ठ लोग जैसा आचरण करते हैं, साधारण लोग उसका अनुसरण करते हैं।"

इसलिए इस पत्र के लिए क्षमा-याचनाकी जरूरत नहीं है। इसे धृष्टतापूर्ण नहीं माना जायेगा।

क्योंकि, ऐसी अपील और किससे करना ज्यादा ठीक हो सकता है? या इस पर आपकी अपेक्षा और किसे ज्यादा गम्भीरताके साथ विचार करना चाहिए?

इंग्लैंडमें आन्दोलन चलानेसे तो उपनिवेशके दोनों समाजोंमें संघर्षकी वृद्धि हो सकती है और उससे मिलनेवाली राहत निकम्मी होगी। वह राहत ज्यादासे ज्यादा सिर्फ अस्थायी हो सकती है। जबतक उपनिवेशके यूरोपीयोंको भारतीयोंके साथ ज्यादा अच्छा व्यवहार करनेके लिए राजी नहीं किया जा सकता तबतक, ब्रिटिश सरकारकी सतर्कताके बावजूद, उत्तरदायी शासनके अधीन भारतीयोंका जीवन बड़ा कष्टमय है।

विस्तारमें न जाकर, मैं समग्र रूपमें भारतीय प्रश्नकी ही चर्चा करूँगा।

मैं मानता हूँ, इसमें कोई संदेह नहीं हो सकता कि उपनिवेशमें भारतीयोंको तुच्छ प्राणी माना जाता है, और उनका जो विरोध किया जाता है उस सबका सीधा कारण उनके प्रति यह द्वेष ही है।

अगर इस द्वेषका आधार सिर्फ उनका रंग है तो बेशक, उनको छुटकारेकी कोई आशा नहीं है। ऐसी हालतमें तो वे जितनी जल्दी उपनिवेश छोड़ दें उतना ही

 
  1. १. जॉन बर्न्स (१८५८-१९४३); ब्रिटिश संसद में प्रमुख मजदूर प्रतिनिधि (१८९७-१९१८)। सन् १८८९ की लन्दनकी गोदी-इड़तालके दिनोंमें मेहनतकशोंके एक मित्रके रूपमें सामने आये थे।
  2. २. भगवद्गीताका अंग्रेजी पद्यानुवाद।