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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

हो या बागवानोंके — उनका आना उपनिवेशके लिए लाभदायी ही हुआ है। देशी लोग जो काम नहीं कर सकते, या नहीं करते, उसे गिरमिटिया भारतीय खुशी से और अच्छी तरह करते हैं। यह तो स्पष्ट है कि इस उपनिवेशको दक्षिण आफ्रिकाका उद्यान-उपनिवेश बनाने में भारतीयोंकी सहायता काम आई है। उन्हें चीनीकी जायदादोंसे हटा लिया जाये तो उपनिवेशके इस मुख्य उद्योगकी हालत क्या होगी? और न यही कहा जा सकता है कि निकट भविष्यमें देशी लोग वह काम सँभाल सकेंगे। दक्षिण आफ्रिकी गणराज्य इसका एक उदाहरण है। देशी लोगोंके सम्बन्धमें अपनी तथाकथित जोरदार नीतिके बावजूद, वह धूलभरा रेगिस्तान-सा ही बना हुआ है, हालाँकि जमीन बहुत उपजाऊ है। वहाँ सस्ते मजदूर कैसे प्राप्त किये जायें, यह समस्या हर दिन ज्यादा गम्भीर होती जा रही है। उल्लेखनीय सिर्फ एक नेलमेपियस जायदादका बाग है। और क्या उसकी भी सफलताका सारा श्रेय भारतीयोंको ही नहीं है? चुनाव सम्बन्धी एक भाषण में कहा गया है:

. . .और आखिर, एकमात्र उपाय समझकर, भारतीयोंको लाकर बसानेकी योजना शुरू की गई। विधानमण्डलने बहुत बुद्धिमत्तापूर्वक इस सर्वथा महत्त्वपूर्ण योजनाका समर्थन किया और इसमें मदद की। जब इस योजनाको शुरू किया गया था उस समय उपनिवेशकी प्रगति और करीब-करीब उसका अस्तित्व ही डाँवाडोल था। और अब इस प्रवासी-योजनाका परिणाम क्या हुआ? वित्तकी दृष्टि से, उपनिवेशके खजानेसे प्रति वर्ष दस हजार पौंड दिये गये हैं। और परिणाम क्या है? केवल यह कि उद्योगोंके विकास अथवा इस उपनिवेश के हितों को किसी भी दृष्टिसे बढ़ानेके लिए स्वीकार की गई किसी भी रकमका इतना आर्थिक प्रतिफल नहीं मिला, जितना कि कुलियोंको मजदूरोंके तौरपर यहाँ लाने से दिखलाई पड़ा है। . . .मेरा विश्वास है कि उपनिवेशके उद्योगोंके लिए जैसे मजदूरोंकी जरूरत है, ये वैसे ही हैं। इनको लाया न गया होता, तो डर्बन के यूरोपीयोंकी आबादी आजकी अपेक्षा आधीसे भी कम होती, और आज जहाँ बीस मजदूर काम करते हैं वहाँ सिर्फ पाँचकी ही जरूरत रहती। वहाँकी जमीन-जायदादका मूल्य आजकी अपेक्षा तीन-चार सौ फीसदी कम होता । उपनिवेशके अन्य स्थानों और नगरोंमें भी जमीनका मूल्य इसी अनुपातमें कम होता और तटवर्ती भूमि आज जिस भाव पर बिकती है, वह भाव कभी भी सम्भव न होता।

ये सज्जन और कोई नहीं, श्री गारलैंड हैं। बेचारे भारतीयोंको वे लोग भी तिरस्कारके साथ "कुली" कहकर पुकारते हैं, जिन्हें ज्यादा अच्छी जानकारी होनी चाहिए। इन "कुलियों" से प्राप्त होनेवाली ऐसी अमूल्य सहायताके बावजूद उक्त माननीय सज्जन भारतीयोंकी उपनिवेशमें बसनेकी वृत्तिपर कृतघ्नताके साथ खेद प्रकट करते जाते हैं।