'नेटाल मर्क्युरी' ने अपने ११ अगस्त १८९४ के अंकमें 'न्यू रिव्यू' से श्री जॉन्स्टनका एक लेख उद्धृत किया है। उसका निम्नलिखित अंश मैं यहाँ देता हूँ:
जहाँतक भारतीय व्यापारियोंका सम्बन्ध है, जिन्हें गलत नाम — "अरब" — से पुकारा जाता है, यह अच्छा होगा कि उनके उपनिवेशमें आनेपर जो आपत्तियाँ की जाती हैं, उनपर विचार किया जाये।
समाचारपत्रोंसे खासकर ६७-१८९४ के 'नेटाल मर्क्युरी' और १५-९-१८९३ के 'नेटाल एडवर्टाइजर' से — आपत्तियाँ ये मालूम होती हैं कि वे सफल व्यापारी हैं और रहन-सहन बहुत सादा होनेके कारण, छोटे-छोटे रोजगारोंमें यूरोपीय व्यापारियोंसे बाजी मार ले जाते हैं। इक्के-दुक्के व्यक्तिगत उदाहरणोंको लेकर जो यह साधारण निष्कर्ष निकाला जाता है कि भारतीय रोजगारमें बेईमानी करते हैं, उसे मैं विचार करनेके अयोग्य मानकर रद करता हूँ। और दिवालियापन के खास उदाहरणके बारेमें तो, उनकी सफाई देनेका कोई खयाल न रखते हुए, मैं सिर्फ इतना ही कहूँगा कि "जो निष्पाप हो वह पहला पत्थर फेंके।" कृपा कर दिवाला अदालत के कागज पत्रोंकी जाँच कीजिए।
अब उनकी सफल होड़-सम्बन्धी गम्भीर आपत्तिको लें। मैं मानता हूँ कि यह सच है। परन्तु, क्या यह कोई कारण है, जिससे उन्हें उपनिवेश से खदेड़ दिया जाये? क्या सभ्य लोगोंका समाज ऐसा तरीका पसन्द करेगा? कौन-सा कारण है, जिससे वे इतने सफल प्रतिद्वन्द्वी बने? सरसरी तौरपर देखनेवाला भी जान सकता है कि कारण उनकी आदतें हैं, जो बहुत सीधी-सादी हैं, किन्तु बर्बर नहीं, जैसा कि 'नेटाल एडवर्टाइजर' ने बताया है। मेरे खयालसे उनकी सफलताका सबसे मुख्य कारण शराब और उसके साथकी बुराइयोंके प्रति उनका पूर्ण आत्मनिग्रह है। इससे एकदम भारी परिमाण में धनकी बचत हो जाती है। इसके अलावा, उनकी रुचियाँ सादी हैं, और