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खुली चिट्ठी


मैं निवेदन करता हूँ, उपर्युक्त तथ्य बताते हैं कि भारतीय मजदूर न सिर्फ वांछनीय हैं, बल्कि वे उपनिवेशके उपयोगी नागरिक हैं। उपनिवेशके कल्याणके लिए उनका होना बिलकुल अनिवार्य है। और जहाँतक व्यापारियोंका सम्बन्ध है, उनमें तो कोई ऐसी बात है ही नहीं जो उन्हें उपनिवेशके लिए अवांछनीय बना दे।

इस विषयको समाप्त करनेके पहले मैं यह भी कह देना चाहूँगा कि भारतीय व्यापारी, जहाँतक वे अपनी जोरदार प्रतिद्वन्द्विताके द्वारा जीवनकी आवश्यक वस्तुओंके भाव मंदे बनाये रखते हैं, यूरोपीय समाजके गरीब तबकेके लिए वे सचमुच वरदान- स्वरूप हैं। और भारतीय मजदूरोंके लिए तो वे अपरिहार्य ही हैं। क्योंकि उनकी जरूरतोंकी वे जानकारी रखते हैं और उनकी पूर्ति करते हैं और उनके यूरोपीयोंकी अपेक्षा अधिक अपनेपनके साथ व्यवहार कर सकते हैं।

हमारी छानबीनका दूसरा शीर्षक, अर्थात् "भारतीयोंकी हस्ती क्या है", सबसे महत्त्वपूर्ण है। मेरा निवेदन है कि आप इसपर विशेष गौर करें। अगर इससे भारत और भारतीयोंके बारेमें अध्ययनको प्रेरणा ही मिल जाये, तो मेरा इसे लिखने- का उद्देश्य पूर्ण हो जायेगा; क्योंकि मेरा पूरा विश्वास है कि दक्षिण आफ्रिका के भारतीयोंके मार्ग में जो कठिनाइयाँ पेश की जाती हैं उनमें से आधी, या तीन-चौथाई भी, भारत-सम्बन्धी जानकारीके अभावसे पैदा हुई हैं। मैं यह पत्र जिनके नाम लिख रहा हूँ उनका मुझे खूब ध्यान है। मुझसे ज्यादा ध्यान किसे हो सकता है? कुछ माननीय सदस्य मेरे पत्रके इस अंशको अपमान-जनक समझकर नाराज हो सकते हैं। ऐसे सज्जनोंसे मैं अत्यन्त आदरपूर्वक निवेदन करता हूँ कि "मुझे मालूम है, आपको भारतके बारेमें बहुत कुछ ज्ञान है। परन्तु क्या यह एक कटु सत्य नहीं है कि उपनिवेशको आपके ज्ञानका लाभ नहीं मिला? भारतीयोंको तो निश्चय ही नहीं मिला। हाँ, यह बात अलग है कि आपने जो ज्ञान प्राप्त किया है वह उसी क्षेत्र में काम किये हुए दूसरे लोगों द्वारा प्राप्त ज्ञानसे भिन्न हो, या उसके विपरीत हो। फिर, यद्यपि यह विनम्र पत्र प्रत्यक्षत: आपके नाम लिखा जा रहा है, तो भी मान्यता यह है कि यह अनेक लोगोंके पास, सचमुच तो उन सबके पास पहुँचेगा, जिनकी वर्तमान निवासियोंसे आबाद इस उपनिवेशके भविष्य में दिलचस्पी है।"

मताधिकार विधेयकके दूसरे वाचनके समय अपने भाषण में प्रधानमन्त्रीने जो विपरीत अभिप्राय व्यक्त किया है, उसके बावजूद, उनके प्रति अधिकतम आदर रखते हुए भी, मैं बतानेकी धृष्टता करता हूँ कि अंग्रेज और भारतीय एक ही इण्डो-आर्यन मूलवंशकी संतान हैं। इसके समर्थन में बहुत-से ग्रंथ-लेखकोंके उदाहरण तो नहीं दे सकूँगा, क्योंकि दुर्भाग्यवश मेरे पास संदर्भ-ग्रंथ बहुत कम हैं; फिर भी सर विलिय मविल्सन इंटरकी पुस्तक 'इंडियन एम्पायर' से मैं निम्न लिखित अंश उद्धृत करता हूँ: