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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय


बौद्ध स्तूपोंसे ही विकसित हुई हों। . . . हिन्दू कलाकारोंने ऐसे स्मारक बना रखे हैं, जो इस युगमें बरबस हमें कौतुहल और आश्चर्य में डाल देते हैं।

दक्षिण भारतके अनेक हिन्दू मन्दिरोंके साथ-साथ, ग्वालियर के राजमहल की हिन्दू स्थापत्य-कला, भारतीय मुसलमानोंकी मसजिदें और दिल्ली तथा आगराके मकबरे अपने सौन्दर्य, रूपरेखा और प्रचुर अलंकार-सम्पत्तिमें कोई सानी नहीं रखते।

हमारे युगकी ब्रिटिश अलंकार-कलाने भारतीय आकृतियों और नमूनोंसे बहुत-कुछ ग्रहण किया है। सच्चे स्वदेशी नमूनोंकी भारतीय कलाकृतियोंका अब भी यूरोपकी अन्तर्राष्ट्रीय कला-प्रदर्शनियों में अधिकतम सम्मान होता है।

एंड्रू कार्नेगीने अपनी पुस्तक 'राउंड द वर्ल्ड' में आगराके ताजमहलके बारेमें लिखा है:

कुछ विषय इतने पवित्र होते हैं कि उनका विश्लेषण तो क्या, वर्णन भी नहीं किया जा सकता। और अब में मनुष्यकी बनाई एक ऐसी इमारतको जानता हूँ, जिसकी उत्कृष्टता या अलौकिकताने उसे ऐसे ही पवित्र क्षेत्रमें उठा दिया है। ताजमहल हलके सफेद संगमर्मरका बना है, जिससे वह दर्शकको ठिठुरा नहीं देता, जैसा कि शुद्ध ठंडा सफेद संगमर्मर करता है। वह स्त्रीके समान गरमाहट देनेवाला और हमदर्द है। . . . एक महान समालोचकने ताज-महलकी बनावटको रमणी-सुलभ कहा है। वह कहता है कि उसमें पौरुषेय कुछ नहीं है, उसकी सम्पूर्ण रम्यता स्त्री-सुलभ है। इस मखनिया संगमर्मर में संगमूसाकी बारीक काली रेखाओंकी पच्चीकारी की गई है और, कहा जाता है, इस प्रकार अरबी लिपिमें पूरीकी पूरी कुरानशरीफ अंकित कर दी गई है। . . . चाहे पहाड़ी झरनोंके बीच हो, चाहे छिटकी हुई चांदनीमें और चाहे जंगलमें सैर करते हुए हो, जबतक में मरता नहीं, जहाँ-कहीं भी और जब-कभी भी ऐसा मनोभाव पैदा होगा, जिसमें वह सब जो अत्यन्त पवित्र, अत्यन्त उन्नत, और अत्यन्त शुद्ध है, शान्त-स्थिर मानसपर अपना तेज बरसानेके लिए लौटता है, तब और तहाँ हो मेरो संचित निधियों में उस सुकुमार मोहिनी — उस ताजमहलकी स्मृति पाई जायेगी।

और ऐसा भी नहीं कि भारतमें उसके अपने संहित या असंहित कानून न हों। मनुकी व्यवस्थाएँ सदासे अपने न्याय और अचूकताके लिए प्रसिद्ध हैं। उनकी न्याय भावनासे सर एच° एस° मेन इतने प्रभावित दिखलाई पड़ते हैं कि उन्होंने उनका बखान इन शब्दों में किया है — "ब्राह्मणोंके मतानुसार, कानून क्या होना चाहिए, इसका आदर्श चित्र।" श्री पिनकॉटने १८९१ में 'नेशनल रिव्यू' में लेख लिखकर उनको "मनुके दार्शनिक उपदेश" कहा है।