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खुली चिट्ठी

हैं। होते-होते उन्हें झूठ बोलनेकी लत पड़ जाती है, बीमारी हो जाती है। वे बिना किसी कारणके, बिना किसी फायदेकी आशाके झूठ बोलने लगते हैं। सचमुच तो वे जानते ही नहीं कि हम क्या कर रहे हैं। वे जिन्दगीकी एक ऐसी मंजिलपर पहुँच जाते हैं, जहाँ कि उनकी नैतिक शक्तियाँ उपेक्षाके कारण बिलकुल मंद पड़ जाती हैं। झूठ बोलनेका दूसरा एक बहुत दुःखद रूप भी है। अपने मालिक द्वारा सताये जाने के डरसे वे अपने उन भाइयोंके लिए भी सच बोलनेका साहस नहीं करते, जिन्हें दुराग्रहपूर्वक सताया जाता है। अपने मालिकोंके खिलाफ गवाही देनेका साहस करनेपर उनकी रूखी-सूखी खुराकमें कटौती कर दी जाये और उन्हें कठोर शारीरिक दण्ड दिया जाये तो उसे समचित्त से सहन करने योग्य तत्त्वज्ञानी वृत्तिवाले तो वे नहीं हैं। तब क्या उन लोगोंपर दया करनेकी अपेक्षा उनका तिरस्कार करना उचित है? क्या उनके साथ दयाके अयोग्य बदमाशों जैसा बरताव किया जायेगा, या उन्हें ऐसे असहाय प्राणी माना जायेगा, जिन्हें हमदर्दीकी बुरी तरहसे जरूरत है? क्या कोई ऐसा वर्ग देखने में आता है, जो इसी तरह की परिस्थितियोंमें उनके समान ही व्यवहार नहीं करेगा?

परन्तु मुझसे पूछा जायेगा कि व्यापारी भी उतने ही झूठे हैं; उनके पक्ष में आप क्या कह सकते हैं? इस विषयमें मेरा निवेदन है कि यह आरोप निराधार है। व्यापार अथवा कानूनका निर्वाह करने के लिए दूसरे वर्ग जितना झूठ बोलते हैं उससे ज्यादा झूठ वे नहीं बोलते। उन्हें बहुत ज्यादा गलत समझा जाता है। पहले तो इसलिए कि वे अंग्रेजी भाषा नहीं बोल सकते; दूसरे, उनकी बातोंका भाषान्तर बहुत त्रुटिपूर्ण होता है, जिसमें स्वयं दुभाषियोंका कोई दोष नहीं है। दुभाषियोंसे चार भाषाओं में सफलतापूर्वक उलथा करनेकी कठिन जिम्मेदारी अदा करनेकी अपेक्षा की जाती है। ये भाषाएँ हैं — तमिल, तेलुगु, हिन्दुस्तानी और गुजराती। व्यापारी भारतीय अनिवार्यतः हिन्दुस्तानी या गुजराती बोलते हैं। जो लोग सिर्फ हिन्दुस्तानी बोलते हैं वे ऊँचे दर्जेकी हिन्दुस्तानी बोलते हैं। दुभाषियोंमें से एकको छोड़कर शेष सब स्थानीय हिन्दुस्तानी बोलते हैं। यह भाषा तमिल, गुजराती और दूसरी भारतीय भाषाओंका एक भद्दा मिश्रण है, जिसे बहुत गलत ढंगसे हिन्दुस्तानी व्याकरणका जामा पहना दिया गया है। इसलिए यह स्वाभाविक ही है कि दुभाषियेको गवाहका आशय समझने के लिए उससे तर्क-वितर्क करना पड़ता है। ऐसा होते समय न्यायाधीश अधीर हो उठता है और सोचता है कि गवाह चालबाजी कर रहा है। बेचारे दुभाषियेसे जब सवाल किया जाता है तो वह, मनुष्य स्वभावके अनुसार ही, अपने सदोष भाषाज्ञानको छिपानेके लिए कह देता है कि गवाह सीधा जवाब नहीं देता। बेचारे गवाहको अपनी स्थिति साफ करनेका कोई मौका नहीं होता। गुजराती बोलनेवालोंके बारेमें तो बात और भी गंभीर है। अदालतोंमें गुजरातीका दुभाषिया एक भी नहीं है। दुभाषिया, बहुत सिरपच्ची करनेके बाद, गवाह जो कुछ कहता है उसका सारमात्र निकाल पाता है। गुजराती बोलनेवाले गवाहोंको अपनी बात समझानेके लिए और और दुभाषियोंको उनकी गुजराती हिन्दुस्तानी समझने के लिए मगजमारी करते हुए