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पत्र: 'नेटाल विटनेस' को

ही हो तो यह शेष भाग आधा रहेगा, परन्तु उनकी संख्या दो या दोसे ज्यादा हो तो यह शेष एक-तिहाई रहेगा।" दोनों नियमोंको मिलाकर पढ़नेसे हमें यह निश्चय करनेमें बहुत मदद मिलती है कि प्रस्तुत विवादग्रस्त मामले में भाईका हिस्सा क्या है।

जिस पुस्तकसे मैंने ये उद्धरण दिये हैं उसमें नमूनोंके तौरपर ऐसे मामलोंके उदाहरण दिये गये हैं। निम्नलिखित उदाहरण अपने हलके साथ मिलता है: "उदाहरण ७ — पति, पुत्र, भाई और तीन बहनें।" हलको पूरे विस्तारके साथ उद्धृत करनेकी जरूरत नहीं है। शेषका अधिकारी होनेके कारण भाईको 'अपने हकसे' बीसमें से दो हिस्से मिलते हैं।

उपर्युक्त उदाहरणसे स्पष्ट हो जायेगा कि भाई, और उनके न होनेपर सौतेले भाई अपने ही अधिकारसे या तो हिस्सेदार होते हैं, या शेषके अधिकारी। इसलिए, प्रस्तुत विवादग्रस्त मामलेमें सर वॉल्टरके मतके प्रति अधिकतम आदरके बावजूद मुझे कहना होगा कि, अगर भाई कुछ 'लेता' ही है, तो वह अपने अधिकारसे 'लेता' है, न कि गरीबोंके प्रतिनिधियोंके रूपमें। और अगर वह नहीं 'लेता' (जो, अगर कानूनका पालन करना है तो ऐसे मामलेमें हो नहीं सकता), तो बची हुई जायदाद हिस्सेदारोंके बीच 'फिरसे बँट जाती' है।

परन्तु रिपोर्ट में कहा गया है कि मैं और काजी लोग भिन्न मतके हैं। अगर आप 'मैं' को निकाल दें और उसके स्थानपर 'कानून' को रख दें (क्योंकि मैंने तो सिर्फ यही कहा है कि कानून क्या है), तो मैं कहूँगा कि काजियोंके मत और कानूनमें फर्क होना ही नहीं चाहिए। और अगर फर्क होता है, तो कानूनको नहीं, काजीको मुँह की खानी पड़ेगी। तथापि, अगर काजीने वैसा ही बँटवारा मंजूर किया है, जैसा कि श्री टैथमके पाससे मेरे पास आई हुई रिपोर्ट में बताया गया है, तो इस मामलेमें मेरे और काजीके बीच कोई मतभेद नहीं है। और श्री टैथमके रिपोर्टके साथ मुझे जो पत्र भेजा है उससे तो मालूम होता है कि काजीकी मंजूर की हुई बँटवारेकी योजना यही है। काजीने इस बारेमें एक शब्द भी नहीं कहा कि सौतेले भाईको गरीबों के प्रतिनिधिके रूपमें जायदादका हिस्सा मिलना चाहिए।

आखिरी बात — रिपोर्ट देखनेके बाद, मैं खास तौरसे कुछ मुसलमान मित्रोंसे मिला। सर वॉल्टरके कथनानुसार उन्हें तो मुस्लिम कानूनका ज्ञान होना चाहिए। और जब मैंने उन्हें निर्णयके बारेमें बताया तो वे आश्चर्य में पड़ गये। बात उन्हें इतनी साफ दिखलाई पड़ती थी कि उन्हें सोचने में कोई समय नहीं लगा। उन्होंने कहा, "गरीबोंको बिला-वसीयत जायदादका कभी कोई हिस्सा नहीं मिलता। सौतेले भाईको अपने ही हकसे हिस्सा मिलना चाहिए।"

इसलिए मेरा निवेदन है कि न्यायाधीशका निर्णय मुस्लिम कानून, काजीके मत और दूसरे मुस्लिम सज्जनोंकी रायके प्रतिकूल है। अगर किसी मृत मुसलमानकी सम्पत्तिके हिस्से, जिनपर उसके रिश्तेदारोंका अधिकार है, तबतक अटकाये रखे जायें, जबतक कि रिश्तेदार यह साबित न कर दें कि वे 'गरीबोंके प्रतिनिधि' हैं, तो यह