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प्रार्थनापत्र : नेटाल विधानसभाको


यह बतानेके लिए कि विधेयक ब्रिटिश संविधानके मूलभूत सिद्धान्तोंका प्रत्यक्ष विरोधी है, प्रार्थी आपकी माननीय सभाका ध्यान गत एक शताब्दीकी उन बड़ी-बड़ी घटनाओंकी ओर आकर्षित करते हैं, जिनमें ब्रिटेनने प्रमुख भाग लिया है। जबरिया मजदूरी ब्रिटिश परम्पराओंके सदैव प्रतिकूल रही है — भले ही वह गुलामीके भयानकतम रूपसे लेकर सौम्यतम ढंगकी बेगारतक कैसी भी क्यों न रही हो। और जहाँतक सम्भव हो सका है, हर जगह उसका उच्छेद कर दिया गया है। गिरमिटिया प्रथा इस उपनिवेशके जैसी असममें भी है। अभी थोड़े ही समय पहले सम्राज्ञीकी सरकारने स्वीकार किया था कि गिरमिटिया प्रथा एक बुरी चीज है, और उसे तभीतक बरदाश्त किया जाना चाहिए जबतक कि वह किसी महत्त्वपूर्ण उद्योगको शुरू करने या सँभालनेके लिए आवश्यक हो, और पहला अनुकूल अवसर आते ही उसको मिटा देना चाहिए। प्रार्थियोंका आदरपूर्वक निवेदन है कि विचाराधीन विधेयक उपर्युक्त सिद्धान्तोंको भंग करनेवाला है।

यदि गिरमिटकी अवधि बढ़ानेका प्रस्ताव अन्यायपूर्ण, अनावश्यक और ब्रिटिश संविधानके मूलभूत सिद्धान्तोंका विरोधी है (जैसा कि आपके प्रार्थियोंको आशा है, उन्होंने आपकी सम्माननीय सभाके सामने संतोषजनक रूपमें सिद्ध कर दिया है), तो कर लगाने का प्रस्ताव और भी ज्यादा वैसा है। यह तो दीर्घ कालसे स्वयंसिद्ध सत्य माना जा चुका है कि करका प्रयोजन सिर्फ सरकारी आय है। प्रार्थियोंके नम्र विचारसे, यह तो एक क्षणके लिए भी नहीं कहा जा सकता कि प्रस्तावित करका लक्ष्य कोई ऐसा प्रयोजन सिद्ध करना है। प्रस्तावित करका संकल्पित अभिप्राय भारतीयोंको अपने गिरमिटकी अवधि पूरी कर लेनेपर उपनिवेशसे खदेड़ देना है। इसलिए यह कर निषेधक होगा और मुक्त व्यापारके सिद्धान्तोंके विरुद्ध बैठेगा।

इसके अतिरिक्त, प्राथियोंको अंदेशा है कि गिरमिटिया भारतीयोंको इससे अनुचित कष्ट पहुँचेगा, क्योंकि भारतसे सारा नाता तोड़कर सपरिवार यहाँ आये हुए भारतीयोंके लिए फिरसे भारत जाकर वहाँ जीविकोपार्जन करनेकी आशा करना बिलकुल असंभव है। प्रार्थी अपने अनुभवसे यह कहनेकी आज्ञा चाहते हैं कि साधारणतः वे भारतीय ही गिरमिट प्रथाके मातहत इस उपनिवेशमें आते हैं जो भारतमें काम करके अपना उदर-पोषण नहीं कर सकते। भारतीय समाजका ताना-बाना ही ऐसा है कि भारतीय अपना घर छोड़ते ही नहीं। जब वे एक बार घर छोड़नेको बाध्य हो जाते हैं, तो वे भारत लौटकर धन कमानेकी तो बात दूर, अपनी रोटी कमा लेनेकी भी आशा नहीं कर सकते।

यह तो माना हुआ सत्य है कि मजदूर उपनिवेशकी समृद्धिके लिए अनिवार्य हैं। अगर ऐसा है, तो प्रार्थियोंका निवेदन है कि जो भारतीय उपनिवेश समृद्धि बढ़ाने में इतनी ठोस सहायता पहुँचाते हैं वे बेहतर रियायतके हकदार हैं।

कहना न होगा कि यह विधेयक एक वर्ग-विशेष से सम्बन्ध रखनेवाला है। भारतीयोंके विरुद्ध उपनिवेशमें मौजूद द्वेषको यह उत्तेजन देता है और उसे बढ़ाता है। इस तरह यह ब्रिटिश प्रजाके दो वर्गोंके बीच की खाईको चौड़ा करेगा। इसलिए