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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय


साथ किया जानेवाला व्यवहार संशोधित कानूनके अनुकूल नहीं है) देशके साधारण न्यायाधिकरणोंका निर्णय अन्तिम होगा।

(६) अब, प्रार्थियोंका नम्र निवेदन है कि उपर्युक्त निर्णय विचारणीय विषयोंके अनुकूल न होनेके कारण निःसत्त्व है। इसलिए सम्राज्ञी सरकार उसे माननेके लिए बाध्य नहीं है। जिस उद्देश्यको लेकर पंच-फैसला करानेका निश्चय किया गया था वह स्वयं ही विफल हो गया है। आदेश-पत्र पंचको यह विकल्प देता है कि वह या तो किसी एक सरकारके दावेको सही करार दे दे, या अध्यादेशोंकी ऐसी व्याख्या कर दे, जो प्रस्तुत विषय सम्बन्धी खरीतोंका ध्यान रखते हुए, उसे सही जँचे। विद्वान् पंचने स्वयं व्याख्या करनेके बजाय उसकी जिम्मेदारी दूसरोंको सौंप दी है। फिर, यह जिम्मेदारी ऐसे लोगोंतक सीमित रखी गई है, जिनका पद ही उन्हें उन तमाम प्रमाणों और प्रक्रियाओंका उपयोग करने नहीं दे सकता, जिनका उपयोग इस कार्यके लिए किया जा सकता है। इतना ही नहीं, जिनका उपयोग करनेका पंचने खास निर्देश भी किया है और, जिनकी सहायतासे वे शायद ठीक कानूनी तो नहीं, मगर न्यायपूर्ण और उचित व्याख्या कर सकेंगे।

(७) हमारा निवेदन है कि निर्णय दो आधारोंपर अवैध है। पहले तो इसलिए कि पंचने अपना अधिकार दूसरोंको सौंप दिया है। यह दुनियाका कोई पंच नहीं कर सकता। दूसरे, पंचने निर्देशोंका पालन नहीं किया, क्योंकि उसे जिस प्रश्नका निर्णय करनेका विशेष आदेश दिया गया था उसे उसने अनिर्णीत ही छोड़ दिया है।

(८) स्पष्ट है कि उद्देश्य यह नहीं था कि व्याख्याके प्रश्नका निर्णय अदालत में कराया जाये, बल्कि यह था कि उसे हमेशा के लिए समाप्त कर दिया जाये। अगर ऐसा न होता तो सम्राज्ञी-सरकार व्याख्याके प्रश्नको लेकर इतना पत्र-व्यवहार कदापि न करती, जो ट्रान्सवाल ग्रीन बुक्स सं° १ और २ — सन् १८९४ में पाया जाता है। हमारा निवेदन है कि जिस प्रश्नका निर्णय सिर्फ कूटनीतिक और राजनीतिक तरीके पर होना था, और हो सकता है, उसका निर्णय, अगर पंच-फैसलेको वैध माना जाये तो, सिर्फ अदालती तरीकेके लिए छोड़ दिया गया है। और, जैसा कि सरकारकी ओरसे पेश किये गये मामलेमें खास तौरसे कहा गया है, ट्रान्सवालके मुख्य न्यायाधीशने इस्माइल सुलेमानके मामलेमें इस विषयपर अपना मत पहले ही व्यक्त कर दिया है। अगर यह सच है कि तो इस प्रश्नका फैसला क्या होगा, यह तय-सा ही है। इसके प्रमाणके लिए प्रार्थी महानुभावका ध्यान उन दिनोंके समाचारपत्रों, खास तौरसे 'जोहानिसबर्ग टाइम्स' (साप्ताहिक संस्करण) के २७ अप्रैल, १८९५ के अंककी ओर आकर्षित करते हैं।

(९) परन्तु महानुभावके प्रति प्रार्थियोंके निवेदनका आधार ज्यादा ऊँचा और ज्यादा व्यापक है। हमारा दृढ़ विश्वास है कि जिस प्रश्नका असर सम्राज्ञीके हजारों प्रजाजनोंपर पड़ता है, जिसके उचित हलपर सैकड़ों ब्रिटिश प्रजाजनोंकी रोटीका सवाल निर्भर है और जिसके कानूनी हलसे सैकड़ों कुटुम्ब बरबाद तथा पैसे-पैसेके मुहताज हो सकते हैं, उसे महज अदालतके फैसलेके लिए न छोड़ा जायेगा जहाँ हर आदमीके