राज्यका प्रत्येक नागरिक और प्रत्येक यूरोपीय भारतीयोंका घोर विरोधी होता तो उसका भी, हमारा निवेदन है, मुख्य मुद्देपर कोई असर न पड़ता। हाँ, अगर इस विरोधके कारण कुछ ऐसे होते कि उनसे भारतीय समाजपर, जिसके खिलाफ ये भावनाएँ फैली हैं, कलंक लगता होता, तो बात दूसरी होती। छपनेको देते समय (१४-५-१८९५) तक डच प्रार्थनापत्रपर ४८४ नागरिकोंके और यूरोपीय प्रार्थनापत्रपर १,३४० यूरोपीयोंके हस्ताक्षर हो चुके हैं।
(२९) ऑरेंज फ्री स्टेटके मुख्य न्यायाधीशका निर्णय प्रश्नको जरा भी सरल नहीं करता। उससे प्रश्नका हल जरा भी आसान नहीं होता। नीचे लिखी बातोंसे यह स्पष्ट हो जायेगा।
निर्णयके बाद भी सम्राज्ञीके संरक्षणका सक्रिय प्रयोग ठीक उतना ही जरूरी रहेगा, जैसे कि निर्णय दिया ही न गया हो। अगर दलीलके लिए — और केवल दलीलके लिए ही — मान लिया जाये कि निर्णय उचित और अन्तिम है, और ट्रान्सवालके मुख्य न्यायाधीशने फैसला कर दिया है कि भारतीयोंको सरकार द्वारा निश्चित जगहों में ही रहना तथा व्यापार करना होगा, तो एकदम प्रश्न उठता है कि उन्हें कहाँ रखा जायेगा? क्या उन्हें निचली जमीनपर बसाया जायेगा, जहाँ सफाईके नियमोंका पालन असम्भव है और जो शहरोंसे इतनी दूर हैं कि भारतीयोंके लिए व्यापार करना और सभ्यतासे रहना बिलकुल असम्भव हो जायेगा? यह बिलकुल सम्भव है। मलायी लोगोंके बसने के लिए १८९३ में रहने के अयोग्य स्थान निश्चित करनेके विरुद्ध श्रीमान ब्रिटिश एजेंटने ट्रान्सवाल सरकारको जो निम्नलिखित जोरदार विरोधपत्र भेजा था (ग्रीन बुक सं° २, पृष्ठ ७२) उससे यह सम्भावना स्पष्ट दीख पड़ेगी :
(३०) उसी किताबके आखिरी पृष्ठ पर अपने २१ मार्च, १८९४के खरीतेमें उच्चायुक्तने कहा है :