पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 1.pdf/२६३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
२१७
प्रार्थनापत्र : लॉर्ड रिपनको

राज्यका प्रत्येक नागरिक और प्रत्येक यूरोपीय भारतीयोंका घोर विरोधी होता तो उसका भी, हमारा निवेदन है, मुख्य मुद्देपर कोई असर न पड़ता। हाँ, अगर इस विरोधके कारण कुछ ऐसे होते कि उनसे भारतीय समाजपर, जिसके खिलाफ ये भावनाएँ फैली हैं, कलंक लगता होता, तो बात दूसरी होती। छपनेको देते समय (१४-५-१८९५) तक डच प्रार्थनापत्रपर ४८४ नागरिकोंके और यूरोपीय प्रार्थनापत्रपर १,३४० यूरोपीयोंके हस्ताक्षर हो चुके हैं।

(२९) ऑरेंज फ्री स्टेटके मुख्य न्यायाधीशका निर्णय प्रश्नको जरा भी सरल नहीं करता। उससे प्रश्नका हल जरा भी आसान नहीं होता। नीचे लिखी बातोंसे यह स्पष्ट हो जायेगा।

निर्णयके बाद भी सम्राज्ञीके संरक्षणका सक्रिय प्रयोग ठीक उतना ही जरूरी रहेगा, जैसे कि निर्णय दिया ही न गया हो। अगर दलीलके लिए — और केवल दलीलके लिए ही — मान लिया जाये कि निर्णय उचित और अन्तिम है, और ट्रान्सवालके मुख्य न्यायाधीशने फैसला कर दिया है कि भारतीयोंको सरकार द्वारा निश्चित जगहों में ही रहना तथा व्यापार करना होगा, तो एकदम प्रश्न उठता है कि उन्हें कहाँ रखा जायेगा? क्या उन्हें निचली जमीनपर बसाया जायेगा, जहाँ सफाईके नियमोंका पालन असम्भव है और जो शहरोंसे इतनी दूर हैं कि भारतीयोंके लिए व्यापार करना और सभ्यतासे रहना बिलकुल असम्भव हो जायेगा? यह बिलकुल सम्भव है। मलायी लोगोंके बसने के लिए १८९३ में रहने के अयोग्य स्थान निश्चित करनेके विरुद्ध श्रीमान ब्रिटिश एजेंटने ट्रान्सवाल सरकारको जो निम्नलिखित जोरदार विरोधपत्र भेजा था (ग्रीन बुक सं° २, पृष्ठ ७२) उससे यह सम्भावना स्पष्ट दीख पड़ेगी :

जिस स्थानका उपयोग शहरका कूड़ा-करकट इकट्ठा करनेके लिए होता है और जहाँ शहर और बस्तीके बीचके नालेमें झिरझिरकर जानेवाले पानीके सिवा दूसरा पानी है ही नहीं, उसपर बसी हुई छोटी-सी बस्तीमें लोगोंको ठूंस देनेका अनिवार्य परिणाम यह होगा कि उनके बीच भयानक किस्मके बुखार और दूसरे रोग फैल जायेंगे। इससे उनके प्राण और शहरमें रहनेवाले लोगोंका स्वास्थ्य भी खतरे में पड़ जायेगा। परन्तु इन गम्भीर आपत्तियोंके अलावा, इन लोगों में से कुछके पास बताई गई जमीनपर (या और कहीं) वैसे मकान बना लेनेके साधन भी नहीं हैं, जैसेमें रहनेकी इनकी आदत है। इसलिए इन्हें इनके वर्तमान मकानोंसे निकालनेका परिणाम इन सबका प्रिटोरिया छोड़कर चले जाना होगा। इससे इन्हें जो कठिनाइयाँ होंगी उनका तो कहना ही क्या, जो गोरे लोग इनसे मजदूरी कराते हैं उन्हें भी भारी असुविधा और हानिका सामना करना पड़ेगा। . . .

(३०) उसी किताबके आखिरी पृष्ठ पर अपने २१ मार्च, १८९४के खरीतेमें उच्चायुक्तने कहा है :

. . . सम्राज्ञी सरकार मानती है कि पंच-फैसला एशियाकी उन सब आदिम जातियों पर लागू होगा, जो ब्रिटिश प्रजा हों।