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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

प्रार्थियोंके विरुद्ध जो वक्तव्य प्राप्त हुए हों और भारतीय समस्याके जो हल सुझाये गये हों, उन्हें ग्रहण करने में महानुभाव अधिकसे-अधिक सावधानी बरतें।

(४०) प्रार्थी महानुभाव के विचारके लिए यह निवेदन भी करना चाहते हैं कि उन्हें न केवल १८५८ की घोषणासे ही सम्राज्ञीकी अन्य प्रजाओंके बराबर अधिकार और विशेषाधिकार प्राप्त हैं, बल्कि स्वयं महानुभावने अपने खरीतेके द्वारा इस प्रकारके व्यवहारका विशेष आश्वासन दिया है। खरीतेमें कहा गया है :

सम्राज्ञी-सरकारकी इच्छा है कि सम्राज्ञीकी भारतीय प्रजाओंके साथ उनकी अन्य प्रजाओंकी बराबरीका व्यवहार किया जाये।

(४१) यह स्थानिक नहीं, मुख्यतः साम्राज्यसे सम्बन्ध रखनेवाला प्रश्न है। इस प्रश्नके निबटारेका असर उन दूसरे उपनिवेशों और देशोंपर पड़े बिना नहीं रह सकता, जहाँ पारस्परिक संधिके द्वारा सम्राज्ञीकी प्रजाओंको व्यापार आदिकी स्वतन्त्रता है, और जहाँ जाकर सम्राज्ञीके भारतीय प्रजाजन भी बस सकते हैं। फिर, इस प्रश्नका असर दक्षिण आफ्रिकावासी भारतीयोंकी बहुत बड़ी आबादीपर पड़ता है। जो लोग दक्षिण आफ्रिकामें बसे हैं उनके लिए यह लगभग जीवन और मरणका प्रश्न है। लगातार दुर्व्यवहारसे उनका ह्रास हुए बिना नहीं रह सकता। यहाँतक कि वे अपनी सभ्य आदतोंसे गिरकर आदिवासी देशी लोगोंके स्तरपर पहुँच जायेंगे। और फिर, अबसे एक पीढ़ी बाद, इस प्रकार अधःपतनके मार्गपर चलते हुए भारतीयोंकी सन्तानों और देशी लोगोंकी आदतों, रीति-नीति और विचारोंमें बहुत कम अन्तर रह जायेगा। इस तरह देशान्तर प्रवासका उद्देश्य ही विफल हो जायेगा और सम्राज्ञीकी प्रजाका एक भारी भाग सभ्यताके पैमानेमें ऊपर चढ़नेके बदले नीचे गिर जायेगा। ऐसी स्थितिका परिणाम विनाशकारी हुए बिना नहीं रह सकता। किसी आत्मसम्मानी भारतीयको दक्षिण आफ्रिकाकी यात्रा करनेका साहसतक न होगा। भारतीयों के सारेके-सारे उद्योगका गला घुट जायेगा। प्रार्थियोंको कोई सन्देह नहीं है कि जिस स्थान में सर्वोच्च सत्ता सम्राज्ञीकी है, या जहाँ ब्रिटिश झंडा फहराता है, वहाँ महानुभाव इस तरहकी दुःखद घटना कदापि न होने देंगे।

(४२) प्रार्थी आदरके साथ बताना चाहते हैं कि दक्षिण आफ्रिकामें भारतीय-विरोधी भावनाओंकी वर्तमान हालतके रहते हुए भी यदि सम्राज्ञी-सरकार प्रार्थियोंके विरुद्ध की जानेवाली स्वार्थपूर्ण चीख-पुकारके सामने झुक गई तो यह प्रार्थियोंके प्रति गम्भीर अन्यायका कार्य होगा।

(४३) अगर यह सच है कि प्रार्थियोंकी सफाई-सम्बन्धी आदतें यूरोपीय समाजके स्वास्थ्यको खतरेमें डालने योग्य नहीं हैं, और अगर यह भी सच है कि उनके विरुद्ध आन्दोलनका कारण व्यापारिक ईर्ष्या है, तो ऑरेंज फ्री स्टेटके मुख्य न्यायाधीशका निर्णय आदेशोंके बिलकुल अनुकूल हो तो भी बन्धनकारक नहीं हो सकता। क्योंकि उस हालत में तो जिस लिए सम्राज्ञी-सरकारने समझौतेसे हटकर कार्य करनेकी अनुमति दी है, उस कारणका अस्तित्व ही नहीं रह जाता।