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६४. अन्नाहारी मिशनरियोंकी टोली

इंग्लैंडमें मैने श्रीमती ऐना किंग्जफर्डकी पुस्तक 'परफेक्ट वे इन डायट' में पढ़ा था कि दक्षिण आफ्रिकामें ट्रैपिस्ट[१] लोगोंकी एक बस्ती है और वे लोग अन्नाहारी हैं। तबसे ही मैं इन अन्नाहारियोंसे मिलनेका इच्छुक था। आखिर वह इच्छा पूरी हो गई।

पहले मैं यह कह दूँ कि दक्षिण आफ्रिका, और खास तौरसे नेटाल, अन्नाहारियोंके लिए विशेष अनुकूल बना लिया गया है। भारतीयोंने नेटालको दक्षिण आफ्रिकाका उद्यान-उपनिवेश बना दिया है। दक्षिण आफ्रिकाकी भूमिमें लगभग कोई भी चीज पैदा की जा सकती है, और सो भी भारी मात्रामें। केला, संतरा और अनन्नासकी उपज तो लगभग अक्षय है, और माँगसे बहुत ज्यादा है। फिर क्या ताज्जुब कि अन्नाहारी लोग नेटालमें खूब भले-चंगे रह सकते हैं? ताज्जुब तो सिर्फ इस बातका है कि इस तरहकी सुविधाओं और गर्म आबहवाके बावजूद उनकी संख्या इतनी कम है। परिणाम यह है कि बड़ी-बड़ी जमीनें अब भी उपेक्षित और बंजर पड़ी हैं। मुख्य भोजन सामग्री आयात की जाती है, जब कि सारीकी सारी चीजोंको दक्षिण आफ्रिकामें ही पैदा कर लेना बिलकुल सम्भव है, और जब कि विशाल नेटाल प्रदेशमें ४०,००० गोरोंकी छोटी सी आबादी भारी मुसीबतमें जकड़ी हुई है। इस सबका कारण यही है कि वे कृषिके कार्यमें नहीं लगना चाहते।

जीवनकी अप्राकृतिक रीतिका एक विलक्षण किन्तु दुःखद परिणाम यह भी है कि भारतीय आबादीके प्रति, जिसकी संख्या भी ४०,००० है, जोरदार द्वेषभाव फैला हुआ है। भारतीय, अन्नाहारी होने के कारण, बिना किसी कठिनाईके कृषि कार्य में लग जाते हैं। इसलिए यह स्वाभाविक ही है कि सारे उपनिवेशमें छोटे-छोटे खेत उनके ही हैं, और उनकी जोरदार होड़से गोरी आबादीको चिढ़ होती है। ऐसा बरताव करके वे 'खाय न खाने दे' की आत्मघाती नीतिका अवलम्बन कर रहे हैं। वे देशके विशाल कृषि-साधनोंको अविकसित छोड़े रखना पसन्द करेंगे, परन्तु यह पसन्द नहीं करेंगे कि भारतीय उनका विकास करें। ऐसी मन्द बुद्धि और अदूरदर्शिताके परिणामस्वरूप जो उपनिवेश यूरोपीय तथा भारतीय निवासियोंकी दूनी या तिगुनी संख्याका भरण-पोषण करने में समर्थ है, वह कठिनाईसे केवल ८०,००० यूरोपीयों और भारतीयोंका भरण-पोषण करता है। ट्रान्सवालकी सरकार तो अपने द्वेष-भावमें यहाँतक बढ़ी चढ़ी है कि जमीन बहुत उपजाऊ होनेपर भी, साराका-सारा गणराज्य धूलका एक रेगिस्तान बना हुआ है। अगर किसी कारण से वहाँकी सोनेकी खानें न चल सकें तो हजारों लोग बेकार हो जायेंगे और अक्षरश: भूखों मर जायेंगे। क्या इससे एक भारी सबक

 
  1. सिस्टशियन ईसाई साधुओंका सन् ११४० में संस्थापित एक पंथ, जो मौन तथा अन्य साधनाओं के लिए प्रसिद्ध है।