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प्रार्थनापत्र : नेटाल विधान परिषदको


अगर मान लिया जाये कि गिरमिटमें बँधने के समय गिरमिटिया भारतीयोंकी औसत उम्र २५ वर्ष होती है, तो दस वर्षतक काम करानेकी अपेक्षा रखनेवाले विधेयकके अधीन उनकी उम्रका सर्वोत्तम भाग सिर्फ गुलामीमें ही बीत जायेगा।

एक भारतीयके लिए लगातार दस वर्षतक उपनिवेशमें रहकर भारत लौटना मूर्खता मात्र होगा। उसके तमाम आत्मीयताके सम्बन्ध तबतक कट जायेंगे और ऐसा भारतीय अपनी ही मातृभूमिमें अपेक्षाकृत पराया बन जायेगा। उसके लिए भारत में काम पाना करीब-करीब असम्भव होगा। व्यापारके क्षेत्रमें पहलेसे ही बहुत भीड़ है और उसके पास इतनी सम्पत्ति भी नहीं होगी कि वह अपनी पूँजीपर गुजर कर सके।

दस वर्षकी कुल कमाई ८७ पौंड होती है। अगर गिरमिटिया इन तमाम दस वर्षोंमें ५० पौंड बचा ले और अपने कपड़ों तथा दूसरी आवश्यकताओंपर सिर्फ ३७ पौंड खर्च करे, तो भी उस पूँजीका ब्याज इतना काफी न होगा कि वह भारत जैसे गरीब देशमें भी अपना जीवन-निर्वाह कर सके। इसलिए, अगर ऐसा भारतीय वापस जानेका साहस करे भी तो वह गिरमिट प्रथामें बँधकर फिर लौट आनेके लिए बाध्य हो जायेगा और उसकी सारीकी-सारी जिन्दगी गुलामीमें ही कटेगी। इसके अलावा, अगर किसी गिरमिटिया भारतीयका कुटुम्ब हो तो इन दस वर्षोंतक वह उसकी बिलकुल परवाह न कर सकेगा। और कुटुम्बवाला तो ५० पौण्डकी बचत भी नहीं कर पायेगा। प्रार्थियोंको परिवारवाले ऐसे गिरमिटिया भारतीयोंके अनेक उदाहरण मालूम हैं, जो कोई बचत नहीं कर पाये।

जहाँतक तीन पौंडी परवानेकी दूसरी उपधाराका सम्बन्ध है, प्राथियोंका निवेदन है कि वह व्यापक असन्तोष और अत्याचारको जन्म देनेवाली होगी। प्रार्थियोंके नम्र खयालसे, यह समझना कठिन है कि सम्राज्ञीकी प्रजाके एक ही वर्गको, और सो भी उपनिवेशके लिए सबसे ज्यादा उपयोगी वर्गको, यह कर मढ़नेके लिए क्यों चुना जाये।

हम आदरके साथ निवेदन करते हैं कि जो आदमी दस वर्ष तक गुलामीकी हालत में उपनिवेशमें रह चुका हो उसे, बादमें, स्वतन्त्र नागरिककी हैसियतसे रहने के लिए भारी कर चुकानेको बाध्य करना सामान्य न्याय और औचित्यके सिद्धान्तोंके अनुरूप नहीं है।

माना कि ये धाराएँ सिर्फ उन लोगोंपर लागू होंगी, जो कानून बन जानेके बाद उपनिवेशमें आयेंगे और जिन्हें अपने आनेकी शर्तोंकी पहलेसे ही जानकारी होगी। परन्तु इससे उक्त उपधाराएँ आपत्तिरहित नहीं बन जातीं। कारण यह है कि इकरार करनेवाले दोनों पक्षोंको कार्रवाई करनेकी बराबर स्वतन्त्रता नहीं होगी। गरीबीकी मारसे व्याकुल होकर और अपने परिवारका पालन-पोषण करना असम्भव देखकर जब कोई भारतीय गिरमिटपर हस्ताक्षर करता है, तब उसे स्वतन्त्रतासे हस्ताक्षर करने वाला नहीं कहा जा सकता। ऐसे आदमी देखे गये हैं जिन्होंने तात्कालिक कष्टोंसे छूटनेके लिए इससे भी ज्यादा सख्त बातोंको मंजूर किया है।