(११) बताया गया है कि माननीय महान्यायवादीने विधेयकका दूसरा वाचन पेश करते हुए कहा था कि :
(१२) विद्वान महान्यायवादी के प्रति अधिकसे-अधिक सम्मानके साथ प्रार्थी नम्रतापूर्वक निवेदन करते हैं कि उपर्युक्त आक्षेपसे विचाराधीन उपधाराएँ एकदम निन्दनीय प्रमाणित हो जाती हैं। हमें विश्वास है कि सम्राज्ञीकी सरकार विधेयकको अनुमति देकर ऐसे आक्षेपोंका समर्थन नहीं करेगी।
(१३) प्रार्थी मानते हैं कि जिन कानूनोंका रुख मनुष्योंको सदा गुलामी में जकड़े रहनेका हो उन्हें बरदाश्त करना ब्रिटिश संविधानकी भावनाके प्रतिकूल है। कहने की जरूरत नहीं कि अगर यह विधेयक मंजूर हो गया तो यह ऐसा ही करनेवाला है।
(१४) सरकारी मुखपत्र 'नेटाल मर्क्युरी' ने ११ मई, १८९५ के अंकमें उक्त विधयकको इस प्रकार न्यायसंगत ठहराया है :
(१५) उपर्युक्त उद्धरण प्राथियोंने यह बतानेके लिए दिया है कि भारतीयोंके विरुद्ध उत्तरदायी लोगों में भी कैसी भावना फैली हुई है। और, इस भावनाका कारण सिर्फ यही है कि कुछ — बहुत थोड़े. लोग न केवल गिरमिटके मातहत और उसकी अवधि में, बल्कि अवधि समाप्त हो जानेके बाद भी लम्बे समयतक मजदूरोंकी हैसियत से सेवा करनेके पश्चात्, उपनिवेशमें व्यापार करनेका हौसला करते हैं।
(१६) प्रार्थियोंको दृढ़ विश्वास है, सम्राज्ञीकी सरकार इस बयानको मंजूर नहीं करेगी कि उपनिवेशके कल्याणके लिए अनिवार्य माने गये लोगोंसे उपनिवेश में निरन्तर गुलामी में रहने या ३ पौंड वार्षिक कर देकर 'नेटाल एडवर्टाइज़र' (९-५-१८९५) के शब्दोंमें — 'स्वतन्त्रता खरीदने' की माँग करना न तो सख्ती है न अन्याय है।