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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय


(११) बताया गया है कि माननीय महान्यायवादीने विधेयकका दूसरा वाचन पेश करते हुए कहा था कि :

हमारा ऐसा कोई इरादा नहीं है कि मजदूरोंके आनमें बाधा डालकर किसी उद्योगको हानि पहुँचाई जाये। परन्तु ये भारतीय स्थानिक उद्योगोंके विकास के लिए मजदूर बनाकर लाये गये हैं; इस मंशा से नहीं कि विभिन्न राज्योंमें जिस दक्षिण आफ्रिकी राष्ट्रका निर्माण हो रहा है उसके ये अंग बन जायें।

(१२) विद्वान महान्यायवादी के प्रति अधिकसे-अधिक सम्मानके साथ प्रार्थी नम्रतापूर्वक निवेदन करते हैं कि उपर्युक्त आक्षेपसे विचाराधीन उपधाराएँ एकदम निन्दनीय प्रमाणित हो जाती हैं। हमें विश्वास है कि सम्राज्ञीकी सरकार विधेयकको अनुमति देकर ऐसे आक्षेपोंका समर्थन नहीं करेगी।

(१३) प्रार्थी मानते हैं कि जिन कानूनोंका रुख मनुष्योंको सदा गुलामी में जकड़े रहनेका हो उन्हें बरदाश्त करना ब्रिटिश संविधानकी भावनाके प्रतिकूल है। कहने की जरूरत नहीं कि अगर यह विधेयक मंजूर हो गया तो यह ऐसा ही करनेवाला है।

(१४) सरकारी मुखपत्र 'नेटाल मर्क्युरी' ने ११ मई, १८९५ के अंकमें उक्त विधयकको इस प्रकार न्यायसंगत ठहराया है :

तथापि, इतना तो सरकार मंजूर नहीं कर सकती कि जिन लोगोंने उचित मजदूरीपर उपनिवेशियों की मदद करनेका इकरार किया है, उन्हें अपना इकरार तोड़ने और उपनिवेशियोंका प्रतिस्पर्धी बनकर रहने दिया जाये — उन उपनिवेशियोंके प्रतिस्पर्धी बनकर, जिनकी केवल सेवा करनेके लिए वे यहाँ आये हैं, किसी दूसरे हेतुके लिए या किसी दूसरी शर्त के लिए नहीं। इसके विपरीत कुछ करनेका अर्थ सही और गलतके बीचका सारा भेद मिटा देना और कानून तथा ओचित्यके अस्तित्वकी उपेक्षा करना होगा। इसमें किसी प्रकारकी न तो कोई सख्ती है और न वैसा करनेकी कोई इच्छा ही है; न कुछ और ही ऐसा है, जो निष्पक्ष विचार करनेपर आपत्तिजनक ठहर सके।

(१५) उपर्युक्त उद्धरण प्राथियोंने यह बतानेके लिए दिया है कि भारतीयोंके विरुद्ध उत्तरदायी लोगों में भी कैसी भावना फैली हुई है। और, इस भावनाका कारण सिर्फ यही है कि कुछ — बहुत थोड़े. लोग न केवल गिरमिटके मातहत और उसकी अवधि में, बल्कि अवधि समाप्त हो जानेके बाद भी लम्बे समयतक मजदूरोंकी हैसियत से सेवा करनेके पश्चात्, उपनिवेशमें व्यापार करनेका हौसला करते हैं।

(१६) प्रार्थियोंको दृढ़ विश्वास है, सम्राज्ञीकी सरकार इस बयानको मंजूर नहीं करेगी कि उपनिवेशके कल्याणके लिए अनिवार्य माने गये लोगोंसे उपनिवेश में निरन्तर गुलामी में रहने या ३ पौंड वार्षिक कर देकर 'नेटाल एडवर्टाइज़र' (९-५-१८९५) के शब्दोंमें — 'स्वतन्त्रता खरीदने' की माँग करना न तो सख्ती है न अन्याय है।