(३०) अभी, १८९४ में ही, संरक्षककी रिपोर्टमें भारतीयोंके उपनिवेशके लिए अनिवार्य होनेकी बात कही गई है। इस विषयके प्रमाणोंकी चर्चा करते हुए संरक्षकने पृष्ठ १५ पर कहा है :
(३१) जिन्हें इस विषयका विशेषज्ञ कहा जा सकता है अगर उनके कथनको सारीकी सारी धारा शुरूसे आखिरतक भारतीयोंकी उपयोगिता सिद्ध करनेवाली ही है तो, प्रार्थियोंका निवेदन है, यह कहना ज्यादती न होगी कि ऐसे लोगोंको निरन्तर गुलामीमें रखना या उन्हें तीन पौंड वार्षिक कर देनेके लिए — चाहे वे दे सकते हों या नहीं — बाध्य करना, कमसे कम कहा जाये तो, बिलकुल एकपक्षीय और स्वार्थमय कार्रवाई है।
(३२) प्रार्थी आदरपूर्वक आपका ध्यान इस वस्तुस्थितिकी ओर आकर्षित करते हैं कि यदि विधेयक कानूनमें परिणत हो गया तो भारतीयोंके देशान्तरवासका मूल उद्देश्य ही हर तरहसे निष्फल हो जायेगा। अगर देशान्तरवासका उद्देश्य यह है कि उससे अन्ततः भारतीय अपनी आर्थिक स्थिति सुधारनेमें समर्थ हों, तो वह उद्देश्य उनके निरन्तर इकरारमें बँधे रहनेसे निश्चय ही पूरा न होगा। अगर उद्देश्य भारतके घने भागों की भीड़ कम करना हो तो वह भी विफल ही होगा। क्योंकि कानूनका ध्येय उपनिवेशमें भारतीयोंकी संख्या बढ़ने न देना है। उसके पीछे मंशा यह है कि जो लोग गिरमिटके जुए का भार वहन करने योग्य नहीं रहे उन्हें जबरन भारत वापस कर दिया जाये और उनके बदले नये आदमी लाये जायें। इसलिए, प्रार्थियोंका नम्र निवेदन है कि पहलेकी स्थितिसे बादकी स्थिति ज्यादा खराब होगी। क्योंकि, जहाँ तक नेटालसे निकासका सम्बन्ध है, घनी आबादीके हलकोंमें भारतीयोंकी संख्या तो वही रहेगी, और जो लोग अपनी इच्छाके विरुद्ध नेटालसे वापस आयेंगे वे अतिरिक्त चिन्ता तथा कष्टके कारण बन जायेंगे। क्योंकि, उन्हें न तो काम पानेकी आशा होगी और न अपने जीवन-निर्वाहके लिए उनके पास कोई पूँजी ही होगी। फलतः उनका पालन शायद सरकारी खर्चसे करना पड़ेगा। इस आपत्ति के जवाब में कहा जा सकता है कि इसके पीछे एक ऐसी मान्यता है, जो कभी सच न उतरेगी। अर्थात्, भारतीय खुशीसे वार्षिक कर चुका देंगे। इसपर प्रार्थी कहनेकी इजाजत चाहते हैं कि अगर ऐसा तर्क किया जाये तो उससे वास्तवमें यही सिद्ध होगा कि