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पत्र : 'नेटाल मयुरी' को


मेरी नम्र मान्यता है कि भारतीय प्रश्न कमसे कम ब्रिटिश उपनिवेशोंके लिए तो स्थानिक और साम्राज्य-व्यापी दोनों महत्त्व रखता है। और मैं निवेदन करता हूँ कि उसपर विचार करनेमें आवेशसे काम लेना, या पहलेसे स्थिर की हुई धारणाओं को पुष्ट करनेके लिए तथ्योंकी ओरसे आँखें मूंद लेना उस प्रश्नको सन्तोषजनक ढंगसे हल करनेका सही तरीका नहीं है। उपनिवेशके जिम्मेदार लोगोंका कर्तव्य है कि वे दोनों समाजोंके बीच की खाई चौड़ी न करें, बल्कि सम्भव हो तो उसे पूरें। भारतीयोंको इस उपनिवेशमें आमन्त्रित करके जिम्मेदार उपनिवेशी उन्हें कोस कैसे सकते हैं? भारतीय मजदूरोंको लानेके स्वाभाविक परिणामोंसे वे भाग कैसे सकते हैं?

आपका,

मो° क° गांधी

[अंग्रेजीसे] नेटाल मर्क्युरी, ५-९-१८९५

 

७१. पत्र : 'नेटाल मर्क्युरी' को[१]

डर्बन
१५ सितम्बर, १८९५

सेवामें
सम्पादक
'नेटाल मर्क्युरी'

महोदय,

भारतीयोंके प्रश्नपर श्री टी० मार्स्टन फ्रांसिसके पत्रके उत्तर में मैं कुछ विचार व्यक्त करनकी धृष्टता कर रहा हूँ।

मैं मानता हूँ कि भारतीय नगरपालिकाओं और विधानपरिषदोंके बारेमें भी आपके पत्र लेखकका कथन पूर्णतः सही नहीं है। केवल एक उदाहरण ले लीजिए। मैं नहीं समझता कि भारतीय नगरपालिकाओंके अध्यक्ष आई° सी° एस° अफसर ही होते हैं। बम्बई नगर-निगमके वर्तमान अध्यक्ष एक सालिसिटर हैं।

 
  1. दक्षिण आफ्रिकामें भारतीयोंको मताधिकार देनेके बारेमें गांधीजीकी दलीलोंका प्रतिवाद करते हुए श्री टी° मार्स्टन फ्रांसिसने, जो अनेक वर्षोंतक भारत में रह चुके थे, ६ सितम्बर, १८९५ को नेटाल मर्क्युरीको एक पत्र लिखा था। उसमें उन्होंने कहा था कि यद्यपि भारतमें भारतीयोंको नगरपालिकाके चुनावों में मत देने और विधान परिषदके सदस्य बननेके अधिकार प्राप्त हैं फिर भी नियम इस तरहके बने हैं कि उनका पक्ष कभी यूरोपीय सदस्योंके पक्षसे प्रबल नहीं हो सकता, और न कभी वे यह अहंकारपूर्ण दावा ही कर सकते हैं कि उन्हें सर्वोच्च सत्ता प्राप्त है। नगरपालिकाओंका अध्यक्ष सदैव एक आई° सी° एस° अधिकारी होता है और कमिश्नर, गवर्नर, वाइसराय, भारत-मन्त्री और अन्ततः ब्रिटिश संसद भारतकी नगरपालिकाओं तथा विधान-संस्थाओंपर रोक लगा सकती है।