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तेईस

पाया था। भारतीय किसानोंने नये-नये फल और शाक-सब्जियाँ बोई और सस्ती तथा भारी मात्रा में पैदा कीं। इस तरह उन्होंने गोरे किसानोंके भावोंको गिरा दिया। भारतीय व्यापारी कम खर्चमें गुजारा करते थे, नौकरों और साज-सामानपर नामचार को ही खर्च करते थे और सरलतासे डच तथा ब्रिटिश व्यापारियोंकी अपेक्षा सस्ते भावोंपर माल बेच सकते थे। इसलिए गोरोंको भय था कि अगर भारतीयोंको निर्बाध रूपसे देश में आने दिया गया और उन्हें उनकी इच्छा के अनुसार भूमिपर या व्यापारमें बस जाने दिया गया, तो वे हमें निगल जायेंगे।

फलतः भारतीयोंपर अनेकानेक प्रतिबन्ध लगा दिये गये। इनमें से सबसे पहला डच उपनिवेश ट्रान्सवालमें १८८५ का अधिनियम ३ था। उसके द्वारा घोषित किया गया था कि एशियाई लोग डच नागरिक अधिकार प्राप्त नहीं कर सकते। उसके द्वारा जरूरी कर दिया गया कि 'स्वच्छता के कारणोंसे' भारतीय उन बस्तियोंमें रहें, जो उनके लिए खास तौरसे अलग कर दी गई हैं; वे उन बस्तियोंके अलावा दूसरी बस्तियों में अचल सम्पत्ति न रखें; और उनमें से जो लोग व्यापारके लिए आये हों वे शुल्क देकर सरकारी दफ्तर में अपने नाम दर्ज करायें और परवाना प्राप्त करें।

यह कानून ट्रान्सवाल डच गणराज्य और सम्राज्ञीके प्रतिनिधियोंके बीच १८८४ के लंदन समझौते की धारा १४ के सरासर विरुद्ध था । उक्त धारामें घोषणा की गई थी कि 'वतनियोंके अतिरिक्त' सब लोगोंको ट्रान्सवाल गणराज्य के किसी भी भाग में प्रवेश करने, यात्रा करने, निवास करने, जमीन-जायदाद खरीदने और व्यापार करनेकी पूर्ण स्वतन्त्रता होगी और उनसे कोई ऐसा कर वसूल नहीं किया जायेगा, जो डच नागरिकोंसे वसूल न किया जाता हो। उपनिवेशमें निवास करनेवाले ब्रिटिश प्रजाजनोंके हितोंकी देख-रेख करनेके लिए ट्रान्सवालमें ब्रिटिश उच्चायुक्त मौजूद था। परन्तु ट्रान्सवालके सभी गोरे — चाहे वे डच हों या ब्रिटिश — उपनिवेशमें 'एशियाइयोंके आक्रमणके खतरे की चीख-पुकार मचाकर आन्दोलन कर रहे थे। ब्रिटिश उच्चायुक्त आन्दोलनके जोरके कारण ब्रिटिश सरकारको सलाह दी कि वह उक्त कानूनका विरोध न करे। इसपर लंदन स्थित ब्रिटिश सरकारने अपना यह फैसला घोषित कर दिया कि वह इस भारतीय-विरोधी कानूनपर कोई आपत्ति नहीं करेगी।

सम्राज्ञी-सरकारने अपनी पहलेकी घोषणाओंके बावजूद, कि भारतीयोंको दूसरे ब्रिटिश प्रजाजनोंके बराबर ही अधिकार प्राप्त होंगे, अपनी नीति पलट दी इससे भारतीयोंके विरुद्ध भेद-भावके कानूनोंकी बाढ़का द्वार खुल गया। यह हालत सिर्फ ङचोंके ट्रान्सवालमें ही नहीं, बल्कि अंग्रेजोंके नेटालमें भी हुई। और यह सब ऐसे समयपर हुआ जब कि ब्रिटिश सरकारको डच तथा ब्रिटिश उपनिवेशों में अपने प्रजाजनोंके संरक्षणका पूरा-पूरा अधिकार प्राप्त था।

सारे दक्षिण आफ्रिकामें भारतीयोंके खिलाफ प्रजातीय भेद-भाव बरता जाने लगा। रेलगाड़ियाँ, बसें, स्कूल और होटल, कोई भी स्थान भेदभाव से मुक्त नहीं रहा। उन्हें एक उपनिवेश से दूसरे उपनिवेश में परवानेके बिना जानेका अधिकार नहीं था। अंग्रेजोंके उपनिवेश नेटालमें, जहाँ भारतीयोंकी संख्या सबसे अधिक थी, १८९४ में