है। परन्तु भारतीय समाजपर उसके जो दुष्परिणाम होंगे उनकी कल्पना करना भी बहुत भयानक है। दूसरी ओर मेरा विश्वास है कि यूरोपीय उपनिवेशियोंको उससे बिलकुल ही लाभ नहीं है। हाँ, अगर किसी जाति या राष्ट्रको नीचे गिरानेमें, या उसे अधःपतनकी अवस्थामें रखनेमें ही कोई सुख मिलता हो तो बात अलग है। "गोरे लोगों या पीले लोगोंके शासन करने" का तो कोई सवाल ही नहीं है, और मुझे आशा है कि मैं भविष्य में कभी बता सकूंगा कि इस विषयमें जो भय रखा जाता है, वह बिलकुल निराधार है।
श्री फ्रांसिसके पत्रके कुछ अंशोंसे शायद मालूम हो जायेगा कि उन्हें भारत छोड़े बहुत दिन हो गये हैं। वहाँ नागरिक कमिश्नरके पदसे अधिक जिम्मेदार पद बहुत कम होते हैं। फिर भी हालमें ही भारत-मन्त्रीने उस पदपर एक भारतीयको नियुक्त करने में बुद्धिमत्ता समझी है। श्री फ्रांसिस जानते हैं कि भारतमें प्रधान न्यायाधीशका अधिकार क्षेत्र कितना बड़ा होता है; एक भारतीय बंगालमें और इसी तरह मद्रासमें भी उस पदको सुशोभित करता रहा है। जो लोग दोनों जातियों — ब्रिटिश और भारतीयों — को 'प्रेमकी रेशमी डोरीसे' बाँधना चाहते हैं, उनके लिए दोनोंके बीच अगणित सम्पर्क-स्थल खोज लेना कठिन न होगा। दोनोंके तीन धर्मो में भी, दिखाऊ विरोधके बावजूद, बहुत-सी बातें एक-सी हैं; और इन तीनोंकी एक त्रिमूर्ति बना देना बुरा न होगा।
आपका,
मो° क° गांधी
[अंग्रेजी से]
नेटाल मर्क्युरी, २३-९-१८९५
७२. पत्र : 'नेटाल एडवर्टाइजर' को
डर्बन
२३ सितम्बर, १८९५
सेवामें
सम्पादक
'नेटाल एडवर्टाइजर'
महोदय,
अपने शनिवारके अंकमें आपने 'भारतीय कांग्रेस' या, अधिक ठीक कहूँ तो 'नेटाल भारतीय कांग्रेस पर जैसे आक्षेप किये हैं, वैसे आक्षेप करनेका अभी समय ही नहीं आया था, कारण यह है कि जिस मामलेमें[१] कांग्रेसका नाम आया है उसका
- ↑ नेटाल भारतीय कांग्रेसके नेताओंपर आरोप लगाया गया था कि मार-पीटके एक मुकदमे में एक भारतीयको गवाही न देनेके लिए धमकानेमें उनका हाथ था। प्रत्यक्ष अभियोग पदयाची नामक व्यक्तिपर था जो कांग्रेसका सदस्य था। कहा गया था कि उसने कांग्रेसके नेताओं की प्रेरणासे वैसा किया। यह भी