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७६. पत्र : 'नेटाल एडवर्टाइजर' को

डर्बन
९ अक्तूबर, १८९५

सेवामें
सम्पादक
'नेटाल एडवर्टाइर'

महोदय,

अपने कलके अंकमें आपने जो अग्रलेख[१] प्रकाशित किया है, उसकी सामान्य विचार धारापर कोई भी भारतीय आपत्ति नहीं कर सकता।

अगर कांग्रेसने अप्रत्यक्ष तरीकेसे भी किसी गवाहको भड़कानेका काम किया हो तो निःसन्देह वह दमनकी पात्र होगी। अभी तो मैं अपना यह दावा दुहराकर ही सन्तोष करूँगा कि उसने ऐसा कोई प्रयत्न नहीं किया। जिस मामले में कांग्रेसकी निन्दा की गई है, उसका फैसला अभी पुनर्विचाराधीन है, इसलिए मैं गवाहियोंकी विस्तृत विवेचना करनेकी स्वतन्त्रता महसूस नहीं करता। कांग्रेसके बारेमें सिर्फ एक गवाहसे सवाल पूछे गये थे, और उसने इस आरोपका खण्डन किया है कि कांग्रेसका इस मामले में कुछ भी हाथ है। अगर लोगोंके अपनी निजी हैसियतसे किये गये कामोंकी जिम्मेदारी उनकी संस्थाओंपर थोपी जाने लगे तब तो मैं समझता हूँ, किसी भी संस्थाके विरुद्ध लगभग कोई भी आरोप सिद्ध किया जा सकता है।

भारतीयोंका दावा प्रत्येक भारतीयके लिए मताधिकार प्राप्त करनेका नहीं है। न वे शुद्ध 'कुलियों' के लिए ही मताधिकारकी माँग करते हैं। और फिर, शुद्ध 'कुली' तो, जबतक वह कुली बना हुआ है, वर्तमान कानूनके अनुसार भी मताधिकार नहीं पा सकता। विरोध तो केवल रंगभेद या जाति-भेदका है। अगर सारे प्रश्नपर ठंडे दिमागसे विचार किया जाये तो किसीको दुर्भावनाएँ या आवेश जाहिर करनेका कोई मौका ही नहीं रहेगा।

भारतीयोंने दुनियाके किसी भागमें राज्यसत्ता प्राप्त करनेका प्रयत्न नहीं किया। मॉरीशसमें उनकी बहुत बड़ी संख्या है, परन्तु वहाँ भी उन्होंने कोई राजनीतिक

 
  1. पत्रने अपने लेखमें कहा था कि यदि यह सिद्ध हो जाये कि भारतीय कांग्रेसने "गलत और सन्दिग्ध किस्मकी कार्रवाइयाँ" की हैं, तो "उसको दण्डित करनेके लिए तुरन्त निर्णायक कदम उठाना उचित होगा।" पदयाचीके मुकदमे में न्यायाधीशने कहा था कि कांग्रेस एक षडयन्त्रकारी ढंगकी, अनिष्ट- कारी संस्था है और वह इस उपनिवेशके समूचे समाजके लिए खतरनाक है। नेटाल एडवर्टाइजरने इस प्रतिकूल निर्णयका हवाला देते हुए पहलेके अपने एक अंकमें लिखा था कि यदि स्थिति ऐसी ही है तो फिर न्यायाधीशकी भर्त्सनाकी आवश्यकतासे किंचित भी कठोर नहीं कहा जा सकता।