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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

यह बतानेके लिए अनेक अधिकारी व्यक्तियोंके कथन संकलित कर दिये गये हैं कि भारतीय 'आदर्श' यूरोपीयोंके बराबर ही सभ्य हैं। और जैसे यूरोपमें निचले से निचले दर्जेके यूरोपीयके लिए ऊँचेसे-ऊँचे दर्जे तक उठ सकना सम्भव है, ठीक वैसे ही भारतमें निचलेसे-निचले दर्जेके भारतीयके लिए भी ऐसा कर पाना सम्भव है। दुराग्रहपूर्ण उपेक्षा या प्रतिगामी कानूनोंसे उपनिवेशके भारतीय और भी अधिक नीचे गिरते जायेंगे और इस तरह हो सकता है, वे सचमुच खतरनाक बन जायें, जो वे पहलेसे नहीं हैं। दुरियाये जानेसे, तिरस्कृत किये जानेसे, कोसे जाने से वे निस्सन्देह वैसा ही करेंगे और वैसे ही बन जायेंगे, जैसा कि वैसी ही परिस्थितियोंमें दूसरोंने किया है, दूसरे लोग बने हैं। प्रेम और सद्व्यवहार मिले तो किसी भी राष्ट्रके किसी भी अन्य व्यक्ति के समान ही ऊँचे उठने की सामर्थ्य उनमें है। जबतक उन्हें वे अधिकार भी नहीं दिये जाते जो भारत में उन्हें प्राप्त हैं, या ऐसी ही परिस्थितियों में प्राप्त होंगे, तबतक यह नहीं कहा जा सकता कि उनके साथ अच्छा व्यवहार किया जाता है।

यह कहना कि भारतीय मताधिकारको समझते ही नहीं, भारत के पूरे इतिहासकी उपेक्षा करना है। भारतीय प्राचीनतम कालसे जिसे सच्चे अर्थ में 'प्रतिनिधित्व' कहा जायेगा, उसे समझते और उसकी कद्र करते आये हैं। उसी सिद्धान्त — पंचायत के सिद्धान्त — के अनुसार भारतीयोंके सब कामकाज चलते हैं। वे अपने-आपको पंचायत के सदस्य मानते हैं । और यह पंचायत सचमुचमें वह सारा समाज होता है, जिसमें वे उस समय रहते हैं। ऐसा करनेकी उस शक्तिने — लोकसत्ताके तत्त्वको पूरी तरह समझने की उस शक्तिने — उन्हें दुनिया में सबसे द्रोहरहित और सबसे सीधे लोग बना दिया है। शताब्दियोंका विदेशी शासन और अत्याचार उन्हें समाज के खतरनाक सदस्य बनाने में असफल रहा है। वे जहाँ भी जाते हैं और जैसी भी हालतों में होते हैं, अपने अधिकारियों द्वारा कार्यान्वित बहुमतके निर्णय के सामने सिर झुका लेते हैं। कारण यह है कि वे जानते हैं, उनके ऊपर तबतक कोई अपनी सत्ता नहीं चला सकता, जबतक कि समाज के बहुसंख्यक लोग उसकी सत्ता बरदाश्त न करते हों। यह तत्त्व भारतीयों के हृदय में इतना गहरा अंकित है कि भारतीय देशी राज्योंके अत्यन्त स्वेच्छाचारी राजा भी महसूस करते हैं कि उन्हें प्रजाके लिए शासन करना है। हाँ, यह सही है कि सभी राजा इस सिद्धान्त के अनुसार नहीं चलते। इसके कारणोंकी चर्चा यहाँ करने की जरूरत नहीं है। और सबसे अधिक आश्चर्यचकित करनेवाली बात तो यह है कि जब प्रत्यक्षतः राजतन्त्र होता है तब भी पंचायत सबसे ऊँची संस्था मानी जाती है। उसके सदस्योंके कार्योंका बहुमतकी इच्छा के अनुसार नियमन किया जाता है। इस दावे के प्रमाणोंके लिए मैं पाठकोंसे निवेदन करूँगा कि वे विधानसभाको दिया गया मताधिकार सम्बन्धी प्रार्थनापत्र[१] पढ़ लें।

 
  1. देखिए "प्रार्थनापत्र : नेटाल विधान परिषदको", २८-६-१८९४।