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भारतीयोंका मताधिकार

"भारतीयोंको मताधिकार नहीं मिलना चाहिए, क्योंकि वतनी लोगोंको भारतीयोंके बराबर ही ब्रिटिश प्रजा होनेपर भी कोई मताधिकार प्राप्त नहीं है।"

यह आपत्ति जिस रूपमें मैंने अखबारोंमें देखी है, उसी रूपमें यहाँ पेश कर दी है। नेटालमें तो भारतीय पहलेसे ही मताधिकारका उपभोग कर रहे हैं। इसलिए यह आपत्ति सत्यके विपरीत है। वास्तवमें अब जो प्रयत्न किया जा रहा है वह तो उनसे मताधिकार छीननेका है।

मैं तुलना नहीं करूँगा। केवल ठोस वास्तविकताओंका निवेदन कर दूंगा। वतनी लोगोंके मताधिकारका नियन्त्रण एक विशेष कानूनके आधारपर होता है, जो कुछ वर्षोंसे अमल में लाया जा रहा है। वह कानून भारतीयोंपर लागू नहीं है। हमारा यह झगड़ा भी नहीं है कि वह भारतीयोंपर लागू किया जाये। भारतमें भारतीयोंका मताधिकार (वह जो कुछ भी हो) किसी विशेष कानून द्वारा नियन्त्रित नहीं है। वह कानून सबपर एक जैसा लागू है। भारतीयोंको १८५८ का घोषणापत्र प्राप्त है जो उनकी स्वतन्त्रताका अधिकारपत्र है।

मताधिकार छीननेके पक्षमें ताजीसे ताजी दलील यह दी गई है कि भारतीयोंके मताधिकार से उपनिवेशके वतनी लोगोंको हानि पहुँचेगी। ऐसा कैसे होगा, सो बिलकुल बताया नहीं गया। परन्तु मैं मानता हूँ कि भारतीय मताधिकारके विरोधी लोग भारतीयोंके खिलाफ इस पिटी-पिटाई आपत्तिका आश्रय भारतीयोंके इस कथित दोष के आधारपर लेते हैं कि भारतीय वतनी लोगोंको शराब मुहैया कराते हैं और इससे वतनी लोग बिगड़ते हैं। अब, मेरा निवेदन है कि भारतीय मताधिकारसे इसमें कोई फर्क नहीं पड़ सकता। अगर भारतीय शराब मुहैया कराते हैं तो वे मताधिकारके कारण ज्यादा शराब मुहैया न कराने लगेंगे। भारतीयोंके मत इतने प्रबल तो कभी हो ही नहीं सकते कि वे उपनिवेशकी वतनी लोगों-सम्बन्धी नीतिको प्रभावित कर दें। इस नीतिपर तो १०, डाउनिंग स्ट्रीट स्थित ब्रिटिश सरकार कड़ी चौकसी रखती है, और बहुत हदतक इसका नियन्त्रण भी उसीके द्वारा होता है। सच तो यह है कि इस मामलेमें डाउनिंग स्ट्रीटकी सरकारके आगे यूरोपीय उपनिवेशियोंकी भी कुछ नहीं चलती। परन्तु हम जरा तथ्योंको देखें। वर्तमान भारतीय मतदाताओं की स्थिति बताने वाली जो विश्लेषणात्मक तालिका नीचे दी गई है, उससे मालूम होता है कि उसमें सबसे बड़ी और बहुत बड़ी संख्या व्यापारियोंकी हैं। सभी जानते हैं कि ये व्यापारी खुद शराब बिलकुल नहीं पीते। इतना ही नहीं, ये तो चाहेंगे कि उपनिवेश से शराबका चलन पूरी तरह मिट ही जाये। और अगर मतदाता सूची ऐसी ही रहे तो वतनी लोगों-सम्बन्धी नीतिपर अगर उनके मतका कोई असर हो सकता है, तो वह अच्छा ही होगा। परन्तु भारतीय प्रवास आयोगकी १८८५-१८८७ की रिपोर्टके निम्न-लिखित उद्धरणोंसे मालूम होता है कि इस विषयमें भारतीय यूरोपीयोंकी अपेक्षा बुरे नहीं हैं। ये उद्धरण देने में मेरा तुलना करनेका कोई इरादा नहीं है। उसको मैंने,