मैं नहीं समझता कि नेटालकी वर्तमान हालत में भारतीय आबादीको निकालकर उसके स्थानकी पूर्ति यूरोपीयोंसे कर लेना सम्भव है। मैं नहीं मानता कि हम यह कर सकते हैं। मेरे पास जो कर्मचारी हैं उनसे मैं ३,००० भारतीयोंको सँभाल सकता हूँ। परन्तु अगर उनकी जगह ३,००० गोरे मजदूर होते तो मेरे लिए उन्हें सँभालना अशक्य होता। . . .
पृष्ठ १४९ पर वे कहते हैं :
मैं पाठकोंका ध्यान हालमें प्रकाशित वतनी लोगों-सम्बन्धी सरकारी रिपोर्टकी ओर भी आकर्षित करूँगा। उसमें पाठक देखेंगे कि लगभग सभी मजिस्ट्रेट इस मतके हैं कि यूरोपीयोंके प्रभावसे वतनी लोगोंके नैतिक चरित्रमें बुराइयाँ आई हैं।
इन अकाट्य तथ्योंके होते हुए वतनी लोगोंके ह्रासका सारा दोष भारतीयोंपर मढ़ देना क्या अन्याय नहीं है? १८९३ में नगरोंमें शराब मुहैया करनेके अपराधमें २८ यूरोपीयोंको सजा हुई थी। सजा पानेवाले भारतीयोंकी संख्या केवल तीन थी।
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'यह देश गोरोंका देश होगा और रहेगा, काले लोगोंका नहीं। और भारतीयों का मताधिकार तो यूरोपीयोंके मतोंको सर्वथा निगल जायेगा और भारतीयोंको नेटालमें राजनीतिक प्रभुता प्रदान कर देगा।"
इस कथन के पहले अंशकी चर्चा में नहीं करना चाहता। मैं मंजूर करता हूँ कि मैं उसे पूरी तरह समझता भी नहीं। तथापि, बादके अंशकी तहमें जो गलतफहमी है उसे मैं दूर करनेका प्रयत्न करूँगा। मैं कहनेका साहस करता हूँ कि भारतीयोंके मत यूरोपीयोंके मतोंको कभी भी निगल नहीं सकते। और यह कल्पना कि भारतीय राजनीतिक प्रभुताका हक माँगनेकी कोशिश कर रहे हैं, पिछले सारे अनुभव के विरुद्ध है। मुझे अनेक यूरोपीयोंके साथ इस प्रश्नपर बातचीत करनेका सौभाग्य मिला है। और लगभग सभीने यही मानकर बहस की है कि उपनिवेशमें प्रत्येक व्यक्तिको एक मत देनेका अधिकार प्राप्त है। मताधिकारके लिए सम्पत्तिकी योग्यता आवश्यक है,