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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय


जब यह पत्र लिखा जा रहा था, श्री मेडनने बेलेयरमें एक भाषण दिया, और उस सभा में एक विलक्षण प्रस्ताव पास किया गया। उक्त माननीय सज्जनके प्रति अधिकसे-अधिक सम्मान रखते हुए, मैं उनके इस कथनपर आपत्ति करता हूँ कि भारतीय सदा गुलामीकी हालतमें रहे हैं, और इसलिए स्वशासनके लिए अयोग्य हैं। यद्यपि उन्होंने अपने कथनके समर्थनमें इतिहासकी सहायता ली है, मेरा दावा है कि इतिहास उसे साबित करनेमें असमर्थ है। पहली बात तो यह है कि भारतीय इतिहास सिकन्दर महानके आक्रमणकी तारीखोंसे शुरू नहीं होता। फिर भी, मैं यह कहनेकी स्वतन्त्रता लेता हूँ कि उस समयका भारत आजके यूरोपकी तुलनामें बहुत अच्छा उतरेगा। मैं उन्हें इंटर-कृत 'इंडियन एम्पायर', पृष्ठ १६९-७० पर यूनानियों द्वारा किया हुआ भारतका वर्णन पढ़ने की सलाह देता हूँ। उसका कुछ अंश मेरी "खुली चिट्ठी" में उद्धृत किया गया है। और फिर, उस तारीखके पहलेके भारतका क्या? इतिहास बताता है कि आर्योंका घर भारत नहीं था, वे मध्य एशियासे आये थे और उनकी एक शाखा भारतमें आकर बस गई, दूसरी शाखाएँ यूरोपको चली गई। और उस समयका शासन इस शब्द के सच्चेसे-सच्चे अर्थ में सभ्य शासन था। सम्पूर्ण आर्य साहित्य उसी समय निर्मित हुआ था। सिकन्दरके समयका भारत तो पतनोन्मुख था। जब दूसरे राष्ट्रोंका निर्माण भी शायद ही हुआ था, उस समय भारत उन्नतिके शिखरपर था। और वर्तमान युगके भारतीय उसी जातिके वंशज हैं। इसलिए यह कहना कि भारतीय तो सदा गुलामीमें रहे हैं, सही नहीं है। बेशक, भारत अजेय नहीं रहा और भारतीयोंके मताधिकारको छीननेका यही कारण हो तो मुझे इसके अलावा कुछ नहीं कहना है कि दुर्भाग्यवश प्रत्येक राष्ट्र इस विषय में ओछा पाया जायेगा। यह सच है कि इंग्लैंड भारतपर अपना 'राजदण्ड चलाता' है। भारतीय उसके लिए लज्जित नहीं हैं। वे ब्रिटिश ताजके अधीन रहने में गौरव अनुभव करते हैं, क्योंकि उनका खयाल है कि इंग्लैंड भारतका बन्धन-मोचक सिद्ध होगा। सब आश्चर्योंका आश्चर्य तो यह दिखाई देता है कि भारतीय जनता, 'बाइबिल' के कृपापात्र राष्ट्रके[१] समान, शताब्दियोंके अत्याचारों और पराधीनताके बावजूद, अब भी अदमनीय बनी है। और अनेक ब्रिटिश लेखकोंका खयाल है कि भारत अपनी रजामन्दीसे इंग्लैंड की आधीनता में है।

प्रोफेसर सीली कहते हैं :

'भारत के राष्ट्रोंको एक ऐसी सेनासे जीता गया है, जिसका औसतन पाँचवाँ भाग ही अंग्रेजोंका था । कम्पनीके शुरू-शुरूके युद्धों में, जिनसे उसकी सत्ता निर्णायक रूपमें स्थापित हुई — अरकाटके घरेमें, प्लासीमें, बक्सरमें — कम्पनी-की ओरसे लड़नेवाले यूरोपीयोंकी अपेक्षा 'सिपाही' ही ज्यादा थे। और इसके आगे भी हम देख लें कि भारतीयों के अच्छा युद्ध न करने या यूरोपीयोंके सारा युद्ध-भार अपने ऊपर ले लेनेकी बातें भी हमें सुनाई नहीं पड़तीं। . . . परन्तु, अगर एक बार यह मान लिया जाये कि 'सिपाहियों' की संख्या अंग्रेजोंकी संख्यासे हमेशा ज्यादा रही और सैनिक दक्षतामें भी वे अंग्रेजोंके बराबर
 
  1. यहूदी।