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भारतीयोंका मताधिकार


रहे, तो फिर यह सारा का सारा सिद्धान्त ढह जाता है कि हमारी सफलताका कारण हमारी स्वाभाविक वीरता है, जो तुलनामें बहुत अधिक है — डिग्बी : 'इंडिया फॉर द इंडियन्स एंड फॉर इंग्लैंड'।

खबर है कि उन माननीय सज्जनने[१] यह भी कहा है :

हम (उपनिवेशवासियों) को नेटालमें कुछ निश्चित परिस्थितियोंमें उत्तर- दायी शासनका अधिकार दिया गया था। आपने हमारे विधेयकोंको अनुमति देने से इनकार कर दिया। इससे वे परिस्थितियाँ बिलकुल बदल गई हैं। आपने एक ऐसी खतरनाक स्थिति पैदा कर दी है कि जो अधिकार हमें सौंपा गया था वह आपको वापस कर देना हमारा स्पष्ट कर्तव्य हो गया है।

सत्यके यह सब कितना प्रतिकूल है! इसके पीछे यह मान्यता है कि ब्रिटिश सरकार अब उपनिवेशके भारतीयोंको जबरन मताधिकार दिला देनेका प्रयत्न कर रही है। परन्तु सत्य तो यह है कि उत्तरदायी सरकार स्वयं उन परिस्थितियोंमें भारी परिवर्तन करनेका प्रयत्न कर रही है, जो सत्ता हस्तान्तरित होनेके समय थी। फिर अगर डाउनिंग स्ट्रीट स्थित सरकार यह कहे तो क्या न्याय न होगा कि "हमने आपको कुछ निश्चित परिस्थितियोंमें उत्तरदायी शासन सौंपा था। वे परिस्थितियाँ अब बिलकुल बदल गई हैं। यह आपके गत वर्षके विधेयकसे हुआ है। आपने सारे ब्रिटिश संविधान और ब्रिटिश न्यायभावनाके लिए इतनी खतरनाक हालत पैदा कर दी है कि हमारा साफ कर्तव्य हो गया है कि हम आपको उन मूल तत्त्वोंके साथ खिलवाड़ न करने दें, जिनपर ब्रिटिश संविधानकी नींव रखी गई है?"

जब उत्तरदायी शासन मंजूर किया गया उस समय मेरा निवेदन है, श्री मेडन की आपत्ति सही हो सकती थी। यह प्रश्न दूसरा है कि अगर यूरोपीय उपनिवेशोंने भारतीयोंका मताधिकार छीननेकी जिद की होती तो उत्तरदायी शासन कभी दिया भी जाता या नहीं।[२]

मो° क° गांधी

टी° एल° कलिंग्वर्थ, मुद्रक, ४०, फील्ड स्ट्रीट, डर्बन द्वारा १८९५ में छापी गई अंग्रेजी पुस्तिकासे।

 
  1. श्री मेडन, देखिए पृष्ठ २९९।
  2. इस पुस्तिकाके बारेमें समाचारपत्रको प्रतिक्रियाके लिए, देखिए अर्ली फेज, पृष्ठ ५९२-६।