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८३. पत्र : 'नेटाल मर्क्युरी' को

डर्बन
२ मार्च, १८९६

सेवा में
सम्पादक
'नेटाल मर्क्युरी'

महोदय,

आपके २९ फरवरीके अंकमें रॉबर्ट्स और रिचर्ड्स नामक दो व्यक्तियोंपर 'आवारा कानून' के अन्तर्गत चलाये गये मुकदमेकी अधूरी रिपोर्ट और उसके सम्बन्धमें पुलिस सुपरिटेंडेंटका मन्तव्य प्रकाशित हुआ है। सुपरिंटेंडेंटने इन दोनों व्यक्तियोंको 'उचक्के' तथा अन्य अपशब्दोंसे याद करना पसन्द किया है। इन दोनों व्यक्तियों और भारतीय समाजके प्रति भी न्यायकी दृष्टिसे मैं आपके पत्रका कुछ स्थान लेना चाहता हूँ। रिपोर्ट और मन्तव्य से ऐसा मालूम होता है मानो श्री वॉलरका निर्णय[१] अन्यायपूर्ण हो। इस विचारको यह रंग देनेके लिए सुपरिंटेंडेंटने गवाहीका वह अंश सामने रखा है, जिसका मैं न केवल दोनों व्यक्तियोंके प्रति, बल्कि ऐसी स्थिति में पड़े हुए अन्य लोगोंके प्रति जनताकी सहानुभूति जगानेके लिए उपयोग करना चाहता था, और अब भी करना चाहता हूँ।

मेरे नम्र विचारसे इन दोनों व्यक्तियोंका मामला बहुत कठिन था और पुलिसने उन्हें गिरफ्तार करके और बादमें उन्हें सताकर गलती की। मैंने अदालतमें कहा था, और मैं फिर भी कहता हूँ कि अगर पुलिस भारतीयोंके प्रति थोड़ी-सी उदारता बरते और उन्हें गिरफ्तार करनेमें विवेकसे काम ले तो 'आवारा कानून' अत्याचारपूर्ण नहीं रहेगा। उपर्युक्त दोनों व्यक्ति गिरमिटिया मजदूरोंके पुत्र हैं, यह हकीकत उनके खिलाफ नहीं पड़नी चाहिए। खास तौरसे अंग्रेज समाजमें तो, जहाँ जन्मके आधारपर नहीं, बल्कि गुणोंके आधारपर लोगोंके बारेमें विचार किया जाता है, ऐसा बिलकुल ही नहीं होना चाहिए। उस समाज में अगर ऐसा न होता तो एक कसाईके लड़केको बड़ेसे-बड़े कविका मान न दिया जाता। इसके अलावा, सुपरिटेंडेंटने इस बातको बहुत महत्त्व दिया है कि दूसरे अभियुक्तने लगभग दो वर्ष पूर्व अपना नाम

 
  1. पुलिस मजिस्ट्रेट श्री वॉलरने यद कारण बताकर मामलेको खारिज कर दिया था कि अगर कोई गैर-गोरा व्यक्ति ९ बजे रातके बाद बिना परवानेके घरके बाहर पाया जाये और वह कहे कि मैं अपने घर जा रहा हूँ, तो उसका यह उत्तर उसके बरी हो जानेके लिए काफी होना चाहिए, क्योंकि कानून यह है कि अगर कोई गैर-गोरा व्यक्ति ९ बजे रात और ५ बजे सुबहके बीच घूमता-फिरता पाया और उसके पास न तो उसके मालिकका परवाना हो, न वह अपने घूमने-फिरनेके बारेमें सन्तोषजनक उत्तर ही दे सके, तो उसे गिरफ्तार कर लिया जाये।