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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय


उपर्युक्त कानूनके मातहत जो नियम जारी किये गये हैं, उनके अनुसार बम्बई परिषद में अतिरिक्त सदस्योंके अठारह स्थानोंमें से ८ चुनावके द्वारा भरे जाते हैं। और बम्बई निगमको (जो स्वयं एक प्रातिनिधिक संस्था है), ऐसे ही अन्य नगरपालिकाके निगमों या उनके एक या एकसे अधिक समूहोंको जिन्हें स परिषद गवर्नर समय-समयपर बनाये, जिला और स्थानीय बोर्डों या उनके एक या एकसे अधिक समूहोंको, दक्षिणके सरदारोंको या ऊपर बताये हुए जैसे बड़े-बड़े क्षेत्र मालिकोंके वर्गों, व्यापारियों के संघों और बम्बई विश्वविद्यालयकी सेनेटको बहुमतसे इन सदस्योंका चुनाव करनेका अधिकार है। जिन विभिन्न प्रदेशोंमें विधान परिषदें मौजूद हैं, उनकी विभिन्न प्रातिनिधिक संस्थाओंके द्वारा या उनकी सिफारिशपर सदस्योंका चुनाव करनेके लिए भी ऐसे ही नियम प्रकाशित कर दिये गये हैं।

मताधिकारके या चुने जानेवाले सदस्योंके सम्बन्धमें रंग-भेद अथवा वर्गभेदसे काम नहीं लिया गया। सर्वोच्च विधान परिषदके एक भारतीय सदस्यने, जिन्हें बम्बई विधान परिषदने चुनकर भेजा था, इस्तीफा दे दिया है। उस स्थानके लिए अब जो उम्मीदवार खड़े हैं, उनमें एक यूरोपीय और शेष भारतीय हैं। अगले सप्ताहकी डाक आनेपर चुनावका नतीजा मालूम हो जायेगा।

जो बड़े लोग इस विषयपर अधिकारपूर्वक बोलनेके योग्य हैं वे इसे और नगर- पालिकाके प्रतिनिधित्वको किस दृष्टिसे देखते हैं, यह बतानेके लिए मैं केवल एक उद्धरण यहाँ दे रहा हूँ। सोसाइटी ऑफ आर्ट्सके सामने भाषण करते हुए सर विल्सन इंटरने १५ फरवरी, १८९३ को कहा था :

हमारे अध्यक्ष लॉर्ड रिपनने जिन भारतीय नगरपालिकाओं को इतनी स्मरणीय प्रेरणा प्रदान की है, उनके प्रशासन क्षेत्रमें सन् १८९१ में डेढ़ करोड़की आबादी थी। उनके १०,५८५ सदस्यों में से आधे से ज्यादाका चुनाव कर दाताओंने किया था। अब, लॉर्ड क्रॉसके १८९२ के कानून के अनुसार, प्रतिनिधित्वके इस सिद्धान्तका दायरा, सँभाल-सँभालकर, सर्वोच्च तथा प्रान्तीय विधान परिषवों तक बढ़ाया जा रहा है।

१८५८ की घोषणाका एक अंश इस प्रकार है :

हम अपने-आपको अपने भारतीय प्रदेशके निवासियों के प्रति कर्त्तव्यके उन्हीं दायित्वोंसे बँधा हुआ समझते हैं, जिनसे हम अपनी दूसरी प्रजाओंके प्रति बँधे हैं। . . . और हमारी यह भी इच्छा है कि हमारे प्रजाजन अपनी शिक्षा, योग्यता और ईमानदारीसे हमारी जिन नौकरियोंके कर्त्तव्य पूर्ण करनेके योग्य हों उनमें उन्हें, जहाँतक हो सके, जाति और धर्मके भेदभाव के बिना, मुक्त रूप और निष्पक्ष भावसे सम्मिलित किया जाये।

इन तथ्योंकी दृष्टिसे नये मताधिकार-विधेयकको देखा जाये तो उसे समझना बहुत कठिन होगा। उपनिवेशियोंके सामने सवाल बहुत आसान है। क्या भारतीय समाजका मताधिकार छीन लेना आवश्यक है? अगर है तो मेरा निवेदन है कि