तथ्यसे दिखलाई पड़ता है कि भारतीयोंमें एक अंशतक संगठन करनेकी शक्ति है। परन्तु वे आदरके साथ दावा करते हैं कि संगठन शक्ति कितनी भी जबरदस्त क्यों न हो, वह प्राकृतिक बाधाओंको जीत नहीं सकती। उन ९,००० हस्ताक्षरकर्त्ताओं में पहले से ही मतदाता सूची में शामिल व्यक्तियोंको छोड़कर १०० भी ऐसे नहीं हैं, जो कानूनके अनुसार आवश्यक सम्पत्तिजन्य मताधिकार-योग्यता रखते हों।
दूसरे कारणके सम्बन्धमें माननीय प्रस्तावकने कहा था :
माननीय प्रस्तावकके प्रति समस्त उचित आदरके साथ प्रार्थी निवेदन करते हैं। कि इस सारे भयका सचमुच कोई आधार नहीं है। प्रवासी-संरक्षककी १८९५ की रिपोर्टके अनुसार, उपनिवेशके ४६,३४३ भारतीयोंमें से ३०,३०३ स्वतन्त्र भारतीय हैं। इनमें लगभग ५,००० व्यापारी भारतीयोंको जोड़ा जा सकता है। इस प्रकार ४५,००० से ऊपर यूरोपीयोंके मुकाबले केवल ३५,००० भारतीय ऐसे हैं जो उनके साथ थोड़ी-बहुत होड़ कर सकते हैं। यह तो जान लेना सरल है कि १६,००० गिरमिटिया भारतीय गिरमिटमें बँधे रहकर कभी होड़ नहीं कर सकते। परन्तु ३०,३०३ में से एक बहुत बड़ी बहुसंख्या तो गिरमिटिया भारतीयोंसे एक ही सीढ़ी ऊपर है। और प्रार्थी व्यक्तिगत अनुभवसे कह सकते हैं कि इस उपनिवेशमें हजारों भारतीय ऐसे हैं, जो १० पौंड सालाना किराया नहीं देते । सच तो यह है कि हजारों लोग इतनी रकमपर ही अपनी गुजर-बसर करते हैं। प्रार्थी पूछते हैं, तो फिर भारतीयोंके अगले वर्ष मतदाता सूचीपर छा जानेका डर कहाँ है?
मताधिकार छीने जानेका खतरा गत दो वर्षोंसे चला आ रहा है। इस बीच दो बार मतदाता सूची में संशोधन किया जा चुका है। भारतीयोंको डर था कि कहीं उनमें से बहुत-से लोगोंको सूचीमें छोड़ न दिया जाये। इसलिए उन्हें हर तरहसे अपने मत बढ़ानेकी फिक्र थी। फिर भी मतदाता सूची में एक भी भारतीयका नाम नहीं बढ़ा।
परन्तु माननीय प्रस्तावक आगे कहते ही गये :
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