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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय


और वे योग्यताएँ न लिखे, जिनके आधारपर वह नाम दर्ज करानेका हक पेश करता है।
(४) ऐसे किसी व्यक्तिको, जो (ग), (घ), (ङ) या (च) में बताई गई योग्यताओंके अनुसार अपने निवास के क्षेत्रसे मतदाता सूची में नाम दर्ज कराने का दावेदार हो, उसी योग्यता के आधारपर उसके व्यापार या नौकरीके मुख्य स्थानसे मतदाता नहीं बनाया जायेगा। इसका उलटा भी न किया जायेगा।

मॉरिशस में इन योग्यताओके होते हुए कोई झगड़ा झंझट दिखलाई नहीं पड़ता, हालाँकि वहाँ भारतीयोंकी संख्या सामान्य आबादी से दूनी है और वहाँके भारतीय नेटालके भारतीयोंके ही वर्गके हैं। फर्क सिर्फ यह है कि वे अपने नेटालवासी भारतीयोंसे बहुत ज्यादा समृद्ध हैं।

तथापि, यदि मान लिया जाये कि भारतीयोंके मताधिकारके प्रश्नको सुलझानेकी जरूरत है ही, तो भी प्रार्थी आदरपूर्वक कहना चाहते हैं कि प्रस्तुत विधेयकका मंशा सीधे और खुले ढंग से उसे सुलझानेका नहीं है। बताया गया है कि नेटालके माननीय और विद्वान महान्यायवादीने दूसरे वाचनकी बहस के दौरान वर्तमान कानूनमें थोड़ा-सा परिवर्तन करनेके एक सुझावकी चर्चा करते हुए कहा था :

मैंने कानून में परिवर्तन करनेसे इनकार किया, इसका कारण यह था कि वैसा परिवर्तन करनेका अर्थ अप्रत्यक्ष और गुपचुप तरीके से काम साधना होता, जब कि सरकारका इरादा उसे खुलेआम करनेका है।

प्रस्तुत विधेयकको स्वीकार करनेकी अपेक्षा ज्यादा अच्छे 'अप्रत्यक्ष और गुपचुप तरीके' की कल्पना करना कठिन है। प्रस्तुत विधेयक तो हर व्यक्तिको अँधेरेमें रखनेवाला है। ८ मई, १८९६ के 'नेटाल एडवर्टाइजर' का कथन है :

. . . प्रस्तुत विधेयक अगर अप्रत्यक्ष ढंगका नहीं तो क्या है? उसका सारा लक्ष्य यह प्रयत्न करनेका है कि पिछले सत्रका कानून जो कुछ करनेमें असफल रहा उसे गुपचुप और अप्रत्यक्ष ढंगसे पूरा कर लिया जाये। श्री एस्कम्बन स्वीकार किया है कि वह कानून क्रूरतापूर्ण और सोधी मार करनेवाला था। और उन्होंने ठीक ही कहा कि इसी कारण उसे सम्राज्ञी-सरकारकी सम्मति नहीं मिली। उन्होंने यह भी स्वीकार किया है कि वर्तमान विधेयकका ठीक वही लक्ष्य है, जो कि उस 'क्रूर' विधेयकका था। फर्क सिर्फ इतना है कि यह विधेयक अपने उद्देश्यको ईमानदारी और खरेपन के साथ व्यक्त नहीं करता। दूसरे शब्दोंमें, इसका मंशा सरल तरीके से अप्राप्य लक्ष्यको गुपचुप और अप्रत्यक्ष तरीके से प्राप्त करना है।

अगर सम्राज्ञी-सरकारको विश्वास हो गया है कि नेटालमें भारतीयोंके मता- धिकारको मर्यादित करनेकी सच्ची जरूरत है, अगर उसे सन्तोष हो गया है कि वर्गगत कानूनके सिवा इस प्रश्नको हल किया ही नहीं जा सकता और अगर वह उपनिवेशके