पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 1.pdf/४१

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१. स्वीकारोक्ति[१]

[१८८४]

मैंने पत्र लिखकर अपने हाथसे उन्हें दिया। पत्र में सब दोष स्वीकार किया और उसका दण्ड माँगा। यह विनती की कि मेरे अपराध के लिए वे स्वयं दण्ड न भोगें। साथ-साथ मैंने प्रतिज्ञा भी की कि भविष्य में फिर कभी ऐसा अपराध न करूँगा।[२]

[गुजरातीसे]
सत्यना प्रयोगो अथवा आत्मकथा

 

२. भाषण : आल्फ्रेड हाई स्कूल, राजकोटमें[३]

४ जुलाई १८८८

मुझे आशा है कि दूसरे भी मेरा अनुसरण करेंगे और इंग्लैंडसे लौटने के बाद हिन्दुस्तान में सुधारके बड़े-बड़े काम करने में सच्चे दिलसे लग जायेंगे।

[गुजराती से]
काठियावाड़ टाइम्स, १२-७-१८८८

 
  1. गांधीजी जब १५ वर्षके थे, उन्होंने अपने भाईका थोड़ा-सा कर्ज पटानेके लिए हाथके कड़े से कुछ सोना निकाल कर बेच दिया था। बादमें उन्होंने अपने पिताके सामने बात कबूल कर लेनेका निश्चय किया। पिताने मूक अशुओंके रूपमें उन्हें क्षमा प्रदान की। इस घटनाका उनके मनपर स्थायी प्रभाव पड़ा। उनके अपने ही शब्दों में, यह उनके लिए अहिंसाकी शक्तिका एक पदार्थ पाठ था।
    गांधीजी के सबसे पहले पत्रका यही एक हवाला है। मूल पत्र उपलब्ध न होनेके कारण, आत्मकथामें उनकी ही लिखी हुई जो विवरणी मिलती है वह यहाँ उद्धृत की गई है।
  2. महात्मा गांधी : द अर्ली फेज, (पृष्ठ २१२) के अनुसार, स्वीकारोक्तिका एक वाक्य यह था : "तो पिताजी अब आपकी नजर में आपके बेटे और किसी आम चोर में अन्तर नहीं रहा।"
  3. गांधीजीके वैरिस्टरीकी शिक्षाके लिए इंग्लैंड जाते समय उनके सहपाठियोंने विदाई समारोहका जो आयोजन किया था उसमें दिया हुआ यह भाषण ही शायद गांधीजीका सबसे पहला भाषण है। उसके सम्बन्धमें उन्होंने अपनी आत्मकथामें कहा है : "जवाबके लिए मैं कुछ लिखकर ले गया था। उसे भी मैं मुश्किलसे पढ़ सका। सिर चकराता था, शरीर कांपता था — बस इतना ही मुझे याद है" देखिए सत्यना प्रयोगो अथवा आत्मकथा, भाग १, अध्याय ११।

१–१