पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 1.pdf/४५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
लन्दन-दनन्दिनी


अब मुझे अपनी प्यारी माँकी अनुमति प्राप्त करनेका काम सौंपा गया। मैं मानता था कि यह मेरे लिए कोई बहुत कठिन काम नहीं है। एक-दो दिन बाद मैं और मेरे भाई श्री केवलरामसे मिलने गये। उस समय वे बहुत कार्य व्यस्त थे, फिर भी हमसे मिले। एक-दो दिन पहले मेरी उनके साथ जैसी बातें हुई थीं, वैसी ही बातें फिर हुईं। उन्होंने मेरे भाईको सलाह दी कि मुझे पोरबन्दर भेजें। प्रस्ताव मान लिया गया। फिर हम लौट आये। मैंने हँसी-हँसी में अपनी माँके सामने बात छेड़ी। हँसीमें कही बात तत्काल ही गंभीरतासे स्वीकार कर ली गई और फिर मेरे पोरबन्दर जानेके लिए दिन तय किया गया।

दो या तीन बार मैंने जानेकी तैयारी की, परन्तु कुछ-न-कुछ कठिनाई मार्गमें आती गई। एक बार मैं झवेरचन्दके साथ जानेवाला था, परन्तु रवाना होनेके एक घंटे पहले एक गम्भीर आकस्मिक दुर्घटना हो गई। मैं हमेशा अपने मित्र शेख महताबसे[१] झगड़ता रहता था। रवाना होनेके दिन मैं झगड़े-सम्बन्धी विचारोंमें बिलकुल डूबा हुआ था। रातको भजन-संगीतका कार्यक्रम था। मुझे उसमें बहुत मजा नहीं आया। रातको लगभग साढ़े दस बजे कार्यक्रम समाप्त हुआ और हम सब मेघजीभाई और रामीसे मिलने गये। रास्तेमें चलता-चलता एक ओर तो मैं लंदनकी धुनमें डूबा हुआ था, दूसरी ओर शेख महताबके खयालोंमें। इस धुन में मैं अनजाने एक गाड़ीसे टकरा गया। मुझे चोट आई। फिर भी, चलनेमें मैंने किसीका सहारा नहीं लिया। मुझे लगता है, मेरा सिर चकरा रहा था और आँखोंके सामने बिलकुल अँधेरा छाया हुआ था। फिर हम मेघजीभाईके घरमें प्रविष्ट हुए। वहाँ फिरसे मैं एक पत्थरसे ठोकर खा गया और मुझे चोट आई। मैं बिलकुल बेहोश हो गया था । उसके बाद क्या-क्या हुआ, इसका पता मुझे नहीं चला। उन्होंने मुझे बताया कि उसके बाद कुछ कदम चलनेपर मैं जमीनपर गिर पड़ा था। पाँच मिनटतक मुझे कोई होश नहीं था। उन्होंने समझा कि मैं मर गया। परन्तु भाग्यवश जहाँपर मैं गिरा था वहाँकी जमीन बिलकुल सपाट थी। आखिर मुझे होश आया और सबको खुशी हुई। माँको खबर दी गई। वे मुझे इस हालत में देखकर बहुत दुःखी हुईं। मैंने कहा कि मैं बिलकुल अच्छा हूँ, फिर भी यह चोट मेरे लिए देरीका कारण बन गई। कोई मुझे जाने देने को तैयार न हुआ। बादमें मालूम हुआ कि मेरी साहसी और अत्यन्त प्यारी माँ तो मुझे चले जाने देती, परन्तु उसे लोगोंके कहने-सुननेका डर हुआ। अन्तमें बड़ी कठिनाईसे कुछ दिनों बाद मुझे राजकोटसे पोरबन्दर जानेकी इजाजत मिली। रास्ते में भी मुझे कुछ कठिनाइयोंका सामना करना पड़ा।

आखिर मैं पोरबन्दर पहुँच गया, और सबको बहुत खुशी हुई। लालभाई[२] और करसनदास[३] मुझे घर ले जानेके लिए खाड़ी-पुलपर आये थे। अब, पोरबन्दरमें पहले

 
  1. गांधीजीका बचपनका मित्र, जिसे सुधारने का प्रयत्न उन्होंने वर्षोंतक किया, परन्तु सफल नहीं हुए।
  2. गांधीजीके चचेरे भाई।
  3. गांधीजीके बड़े भाई।