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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

विश्वास था। इसलिए मैं उनका अन्धविश्वास दूर करने में तो सफल हो गया; परन्तु मैं तीन वर्षकी जुदाईके लिए उनकी अनुमति कैसे प्राप्त कर सकता था? तथापि, इंग्लैंड आनेके फायदोंको अतिरंजित करके बतानेपर मैंने उनको राजी कर लिया। फिर भी वे अनिच्छापूर्वक ही राजी हुई। अब रही चाचाकी बात । वे बनारस तथा अन्य तीर्थों को जानेकी तैयारीमें थे। तीन दिन लगातार समझाने और मनानेके बाद मैं उनसे यह उत्तर पा सका:

"मैं तो तीर्थयात्राके लिए जा रहा हूँ। तुम जो-कुछ कह रहे हो वह ठीक हो सकता है। परन्तु मैं तुम्हारे अधार्मिक प्रस्तावपर राजी-खुशीसे 'हाँ' कैसे कह सकता हूँ? मैं तो सिर्फ इतना कह सकता हूँ कि अगर तुम्हारी माताको जानेपर कोई आपत्ति नहीं है तो मुझे दखल देनेका कोई अधिकार नहीं।

इसका अर्थ 'हाँ' लगा लेना कठिन नहीं हुआ। परन्तु मुझे इन दो व्यक्तियों-ही राजी नहीं करना था। भारतमें कोई कितना ही दूरका सम्बन्धी क्यों न हो, हरएक समझता है कि उसे दूसरेके मामलोंमें दखल देनेका एक हक है। परन्तु जब मैंने इन दो से उनकी सम्मति ऐंठ ली (क्योंकि वह ऐंठनेके अलावा और कुछ न था), तब आर्थिक कठिनाइयाँ लगभग समाप्त हो गई।

दूसरे शीर्षककी कठिनाइयोंको आंशिक चर्चा ऊपर हो चुकी है। आपको शायद यह सुनकर आश्चर्य होगा कि मैं विवाहित हूँ। (विवाह बारह वर्षकी उम्रमें हुआ था।) इसलिए अगर मेरी पत्नीके माता-पिताने सोचा कि उन्हें--केवल अपनी लड़कीके हितके लिए ही सही मेरे--मामलेमें हस्तक्षेप करनेका अधिकार है, तो उनका क्या दोष? मेरी पत्नीको देख-भाल करनेवाला कौन था ? वह तीन वर्ष कैसे काटेगी? जिम्मेदारी आई मेरे भाईपर -- वे उसकी देखभाल करेंगे! बेचारे भाई ! अगर श्वशुरकी नाराजगीका असर मेरी माँ और मेरे भाईपर पड़नेवाला न होता तो अपने उस समयके विचारोंके अनुसार मैं उनको न्यायोचित आशंकाओं और गुर्राहटकी परवाह न करता। अपने श्वशुरके साथ एकके बाद एक रात बैठना, उनकी आपत्तियाँ सुनना और उनका सफलतापूर्वक जवाब देना कोई सरल काम नहीं था। परन्तु "धीरज और परिश्रमसे पहाड़ भी कट जाता है"-- इस पुरानी कहावतपर मुझे भलीभाँति भरोसा था; और मैं पीछे हटनेवाला नहीं था।

जब मुझे रुपया और आवश्यक अनुमति मिल गई तब मैं सोचने लगा--"यह अपना सारा परिवेश जो मुझे इतना प्यारा है और जिससे मैं इतना घनिष्ठ हूँ, इससे जुदा होने के लिए अपने आपको कैसे मनाऊँ ? " हम भारतीय जुदा होना पसन्द नहीं करते । जब एक बार मुझे थोड़े ही दिनोंके लिए घरसे जाना पड़ा था; मेरी माँ तभी रोया करती थीं। तो अब मै भावनासे मुक्त रहकर ये हृदय-विदारक दृश्य कैसे देखूगा? मेरे मनको जो वेदना सहनी पड़ी उसका वर्णन करना असंभव है। जब विदाईका दिन नजदीक आया तो मैं करीब-करीब बेहाल हो उठा। परन्तु मैंने बुद्धिमत्ता की कि अपने परमप्रिय मित्रोंको भी यह बात नहीं बताई। मैं जानता था कि मेरा स्वास्थ्य जवाब दे रहा है। सोते-जागते, खाते-पीते, चलते-फिरते,