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भेंट : 'वेजिटेरियन' के प्रतिनिधिसे-१

पढ़ते, मैं इंग्लैंडके ही स्वप्न देखता, उसके ही विचारमें डूबा रहता और सोचता रहता कि विदाईकी कठिनतम घड़ी आनेपर मैं क्या करूँगा। आखिर वह दिन आ पहुँचा। एक ओर मेरी माँ अपनी आँसू-भरी आँखोंको हाथोंसे ढाँके थीं, परन्तु उनके सिसकनेकी आवाज साफ सुनाई पड़ रही थी; दूसरी ओर मैं लगभग पचास मित्रोंके बीच में था। मैंने मनमें कहा--"अगर मैं रोया तो ये लोग मुझे बहुत दुर्बल समझेंगे; शायद मुझे इंग्लैंड जाने भी न देंगे।" इसलिए यद्यपि मेरा हृदय फट रहा था, मैं रोया नहीं। अन्तमें अपनी पत्नीसे विदा लेनेका मौका आया। यह मौका अन्तमें भले ही आया हो, किन्तु महत्त्वमें अन्तिम नहीं था। मित्रोंकी उपस्थितिमें पत्नीसे बातचीत करना चालके विरुद्ध होता। इसलिए मुझे उससे एक अलग कमरेमें मिलना पड़ा। निस्सन्देह उसने बहुत पहलेसे ही सिसकना शुरू कर दिया था। मैं उसके पास गया और क्षण-भरके लिए गूंगी प्रतिमाके समान उसके सामने खड़ा रहा। मैंने उसका चुम्बन किया और उसने कहा--"जाओ मत ! " इसके बाद जो कुछ हुआ उसका वर्णन करने की जरूरत नहीं। यह सब तो हो गया, मगर मेरी चिन्ताओंका अन्त नहीं हुआ। यह तो अन्तका आरम्भमात्र था। विदा लेनेका काम सिर्फ आधा निबटा था। मां और पत्नीसे तो राजकोटमें ही (जहाँ मैंने शिक्षा पाई थी) विदा ले चुका था, मगर मेरे भाई और दूसरे लोग मुझे विदा करनेके लिए बम्बईतक आये थे। वहाँ जो दृश्य उपस्थित हुआ, वह कम मर्मस्पर्शी नहीं था।

बम्बईमें मेरे जाति-भाइयोंके साथ जो टक्करें हुई, उनका वर्णन करना दुःसाध्य है, क्योंकि बम्बई उनका मुख्य अड्डा है। राजकोटमें मुझे ऐसे किसी कहने लायक विरोधका सामना नहीं करना पड़ा था। बम्बईमें दुर्भाग्यवश मुझे शहरके बीचमें रहना पड़ा। उनकी सबसे ज्यादा बस्ती वहीं थी। इसलिए मैं चारों ओर उनसे घिरा हुआ था। किसी न किसीके घूरने और अंगुली उठानेसे बचकर मेरा बाहर निकलना भी संभव नहीं था। एक बार तो जब मैं टाउनहालके पाससे गुजर रहा था, लोगोंने मुझे घेर लिया और मुझपर हू-हाकी बौछार कर दी। मेरे बेचारे भाईको चुपचाप यह सब दृश्य देखना पड़ा। पराकाष्ठा तब हुई जब जातिके मुख्य प्रतिनिधियोंने एक विराट सभाका आयोजन किया। जातिके हर आदमीको सभामें बुलाया गया और जो न आये, उसे पाँच आने जुर्मानेकी धमकी दी गई। यहाँ मैं बता दूं कि इस कार्रवाईका निश्चय करनेके पहले उनके कई शिष्टमंडलोंने आ-आकर मुझे परेशान किया था। परन्तु वे असफल रहे। इस विशाल सभामें मुझे श्रोताओंके बीचों-बीच बैठाया गया। जातिके प्रतिनिधियोंने जिन्हें 'पटेल' कहा जाता है, मुझे खूब सख्त-सुस्त सुनाईं। मेरे पिताजीके साथ अपने सम्बन्धोंकी याद भी दिलाई। मैं कह सकता हूँ कि यह सब मेरे लिए एक अनोखा अनुभव था। उन्होंने अक्षरशः मुझे एकान्त स्थानसे घसीटकर सबके बीच में बैठाया था, क्योंकि मैं तो ऐसी बातोंका अभ्यस्त नहीं था। इसके अलावा, परले दर्जेके शरमीले स्वभावके कारण मेरी स्थिति और भी संकटापन्न हो गई थी। आखिर, यह देखकर कि डाँट-फटकारका मुझपर कोई असर नहीं हुआ, मुख्य पटेलने मुझसे इस आशयकी बातें कहीं--"तुम्हारे पिता हमारे दोस्त थे, इसीलिए हमें तुम