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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

पर दया आती है। तुम जानते हो, जातिके मुखियोंके नाते हममें कितनी शक्ति है। हम ठीक-ठीक जानते हैं कि इंग्लैंडमें तुम्हें मांस खाना पड़ेगा, और शराब पीनी पड़ेगी। इसके अलावा, तुम्हें समुद्र पार जाना है। तुम्हें मालूम होना चाहिए कि यह सब हमारे जाति-नियमोंके खिलाफ है। इसलिए हम तुम्हें हुक्म देते हैं कि अपने फैसलेपर फिरसे सोच-विचार कर लो। नहीं तो, तुम्हें भारीसे भारी सजा दी जायेगी। तुम्हें क्या कहना है ?"

मैंने इन शब्दोंमें जवाब दिया--"आपकी ताकीदोंके लिए मैं आपको धन्यवाद देता हूँ। मगर अफसोस है कि मैं अपना फैसला बदल नहीं सकता। मैंने इंग्लैंड के बारे में जो कुछ सुना है वह, आप जो-कुछ कह रहे हैं, उससे बिलकुल भिन्न है। जरूरी नहीं कि वहाँ मांस-मदिराका सेवन करना ही पड़े। और जहाँतक समुद्र पार करनेकी बात है, अगर हमारे भाई-बन्द अदन जा सकते है तो मैं इंग्लैंड क्यों नहीं जा सकता? मुझे पक्का यकीन हो गया है कि इन सब आपत्तियोंके पीछे ईर्ष्या काम कर रही है।"

माननीय पटेलने गुस्सेसे जवाब दिया--"तो ठीक है। तुम अपने बापके बेटे नहीं हो। " फिर श्रोताओंकी ओर मुख करके उसने कहा इस--"लड़केने अपना होश खो दिया है। हम हरएकको आज्ञा देते हैं कि इसके साथ कोई वास्ता न रखा जाये। जो इसको किसी भी तरहसे मदद करेगा, या इसे विदा करने जायेगा उसे जातिसे निकाल दिया जायेगा। और अगर यह लड़का कभी लौटकर आ सके तो इसे बता दिया जाये कि यह फिरसे कभी जातिमें नहीं लिया जायेगा।"

ये शब्द लोगोंपर वज्र-जैसे पड़े। अब तो उन थोड़े-से चुने हुए लोगोंने भी मुझे छोड़ दिया, जो गाढ़े समयमें भी मेरा साथ देते आये थे। मेरा बड़ा मन था कि उस बचपनेसे भरी धमकीका जवाब दूं, मगर मेरे भाईने मुझे रोक लिया। इस तरह मैं उस अग्नि-परीक्षासे सकुशल निकल तो आया, मगर मेरी स्थिति पहलेसे भी बदतर हो गई। क्षण-भरके लिए ही स्वयं मेरे भाईका मन भी डाँवाडोल हो गया सही। उनको यह धमकी याद आने लगी कि यदि वे मुझे धनकी सहायता करेंगे तो उन्हें अपना पैसा ही नहीं, बल्कि बिरादरी भी खो देनी पड़ेगी। इसलिए, उन्होंने रू-ब-रू मुझसे तो कुछ नहीं कहा, मगर अपने कुछ मित्रोंसे कहा कि वे मुझे या तो अपने निर्णयपर फिरसे विचार करनेको या जातिका क्षोभ ठंडा पड़ने तकके लिए उसे स्थगित कर देनेको समझायें। मेरा जवाब तो सिर्फ एक ही हो सकता था। उसे जान लेनेपर उन्होंने फिर कभी पसोपेश नहीं किया। और वास्तवमें उन्हें जातिसे बहिष्कृत भी नहीं किया गया। मगर बात यहाँ खत्म नहीं हुई। जातिवालोंकी कारस्तानियाँ बराबर चलती रही। इस बार वे करीब-करीब सफल हो गये, क्योंकि उन्होंने मेरा जाना एक पखवारेके लिए मुल्तवी करा दिया। यह उन्होंने इस तरह किया: हम एक जहाज कम्पनीके कप्तानसे मिलने गये। उससे यह कह देनेका अनुरोध किया गया था कि समुद्र में तूफानी मौसम होनेके कारण उस समय--अगस्तमें--रवाना होना मुनासिब न होगा। मेरे भाई सब बातें माननेको तैयार थे, मगर तूफानी मौसममें रवाना