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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

जाते थे। परन्तु यह भी बस नहीं था। भोजनका माल-मसाला इतना सुपाच्य होता था कि चार बजे शामको हमें ताजगी देनेवाले चायके प्याले और कुछ बिस्कुटोंकी जरूरत महसूस होती थी। परन्तु शामकी हवा चायके उस छोटे-से प्याले सारा असर इतनी जल्दी हर लेती कि साढ़े छ: बजे हमें अच्छे-खासे नाश्तेके साथ चाय दी जाती--जिसमें डबल रोटी, मक्खन, फलोंके मुरब्बे, सलाद, मांस, चाय, काफी आदि होती थी। समुद्रकी हवा इतनी स्वास्थ्यवर्धक मालूम होती थी कि लोग कल्पना ही नहीं कर पाते थे कि थोड़े-से, बिलकुल ही थोड़े (सिर्फ आठ या दस-- ज्यादासे ज्यादा पंद्रह) बिस्कुट, थोड़ा-सा पनीर और थोड़ी-सी अंगूरी शराब या बियर लिये बिना सोने जाना सम्भव ही नहीं है। इस सबकी दृष्टिसे क्या निम्नलिखित पंक्तियाँ बिलकुल सही नहीं है?

तुम्हारा जठर ही तुम्हारा भगवान है। तुम्हारा उदर ही तुम्हारा मंदिर है। तुम्हारी तोंद हो तुम्हारो वेदी है। तुम्हारा रसोइया ही तुम्हारा पुरोहित है।...तुम्हारा प्रेम पकाने के बर्तनोंमें ही उद्दीप्त होता है; तुम्हारी श्रद्धा रसोईघरमें ही तीव्र होती है। तुम्हारी सारी आशा मांसको थालियोंमें ही छिपी रहती है।...बार-बार दावत देनेवालेके बराबर, उत्तम भोजन करानेवालेके बराबर, अभ्यस्त स्वास्थ्य-पान करनेवालेके बराबर तुम्हारे आदरका पात्र कौन है?

दूसरे दर्जेका सलून सब तरहके यात्रियोंसे काफी भरा था। उसमें सैनिक, धर्मोपदेशक, नाई, खलासी, विद्यार्थी, सरकारी कर्मचारी और कदाचित् साहसिक लोग भी थे। तीन या चार महिलाएँ थीं। हम अपना समय खास तौरसे खाने-पीने में बिताते थे। लोग बाकी समय या तो ऊँघने में बिताते थे या गपशपमें और कभी-कभी बहस करने, खेलने आदिमें । मगर दो या तीन दिनके बाद बहसों, पत्तों और दूसरोंकी निन्दाके कार्यक्रमोंके बावजूद भोजनोंके बीचका समय बहुत भारी मालूम होने लगा।

हममेंसे कुछ लोगोंको कुछ करनेका उत्साह हुआ। उन्होंने गाने-बजाने,रस्सा-कशी और दौड़की प्रतियोगिताओं और उनमें इनाम देनेका आयोजन किया। एक शाम व्याख्यानों और गाने-बजानेके लिए रखी गई।

मैंने सोचा अब मेरे हाथ डालनेका समय आ गया है। मैंने आयोजक समितिके मंत्रीसे अन्नाहारके विषयमें एक छोटा-सा भाषण करनेके लिए पाव घंटेका समय माँगा। मंत्रीने बड़े अनुग्रहके भावसे सिर हिलाकर हामी भर दी।

तो, मैने डटकर तैयारी की। मुझे जो भाषण देना था उसे मैंने सोचा, लिखा और एक बार फिर लिख डाला। मैं भली-भाँति जानता था कि मुझे विरोधी श्रोताओंका सामना करना है और यह सावधानी रखनी पड़ेगी कि मेरा भाषण सुनते-सुनते लोग ऊँघने न लगें। मंत्रीने मुझसे कहा था कि मैं विनोदमय भाषण करूँ। मैंने उसे बताया कि मेरा घबरा जाना तो सम्भव है, परन्तु विनोदमय भाषण करना मुझे आता ही नहीं है।