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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

और जॉनसनके शरीर कितने ही मजबूत हों, फिर भी वे एक क्षणमें मिट्टीमें मिल जायेंगे। तब वे किसी भी काममें नहीं आयेंगे । शायद यह सीधा-सादा और अच्छा खयाल लाखों तमाशबीनोंके दिमागमें सपने में भी नहीं आया होगा।

[ गुजरातीसे ]
इंडियन ओपिनियन, २३-७-१९१०

२३८. जोहानिसबर्गकी चिट्ठी

सोमवार [जुलाई २५, १९१०]

एशियाई दफ्तरका नया खेल

अधिकारी अबतक भारतीय बालकोंके वयस्क होनेपर उनका पंजीयन कर लेते थे । अब जो बालक १९०८ का कानून लागू होनेके बाद प्रविष्ट हुए हैं उनके वयस्क होनेपर भी उनका पंजीयन करनेसे इनकार किया जा रहा है। इसका नतीजा यह होगा कि सैकड़ों भारतीय बालकोंका पंजीयन नहीं होगा। इसलिए उनको भारत लौट जाना पड़ेगा। सत्याग्रही अदालतमें नहीं जा सकता । किन्तु यह एक बड़ा सवाल उठ खड़ा हुआ है। इसलिए कुछ भारतीय इसके सम्बन्धमें अपने अधिकारका निर्णय न्यायालयसे कराना चाहते हैं। परिणाम अच्छा ही होना चाहिए ।

भेंटे

रुडीपूर्टके श्री आदम अलीने एक कालीन, और जर्मिस्टनके श्री देसाईने फलोंकी एक पेटी भेजी है। साग-सब्जीके विक्रेताओंसे मैं कहना चाहूँगा कि वे देशी साग- सब्जियां, जैसे सेम, बैंगन आदि, भेज सकें तो चन्देके रुपयोंमें से खर्च बचेगा। महिलाओंकी माँग ऐसी साग-सब्जीकी है। व्यापारी छींट और फलालेन भेजेंगे तो वे बच्चोंके काम आयेंगी। इस समय इनकी जरूरत महसूस हो रही है।

[ गुजरातीसे ]
इंडियन ओपिनियन, ३०-७-१९१०

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