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२५८. भारतके पितामह

श्री दादाभाई नौरोजी भारतीयोंमें ब्रिटिश संसदके सबसे पहले सदस्य थे। उनका जन्म सितम्बर ४, १८२५ को बम्बई नगरमें हुआ था। उनकी शिक्षा-दीक्षा एलफिन्स्टन स्कूल और कॉलेजमें हुई और २९ वर्षकी अवस्थामें वे गणित तथा भौतिक विज्ञानके प्रोफेसर बना दिये गये । यह सम्मान पानेवाले पहले भारतीय भी वे ही थे । सन् १८५५ में श्री नौरोजी इंग्लैंडमें स्थापित होनेवाली प्रथम भारतीय व्यावसायिक संस्थाके एक साझेदारके रूपमें इंग्लैंड गये । लन्दनके यूनिवर्सिटी कॉलेजने उनको गुजरातीका प्रोफेसर नियुक्त करके सम्मानित किया। श्री नौरोजीने भारतके लिए जो अनेक सुविधाएँ प्राप्त कीं, उनमें से एक थी, १८७० से भारतीयोंको प्रशासनिक सेवा (सिविल सर्विस ) में प्रवेश करनेकी अनुमति । सन् १८७४ में वे बड़ौदाके प्रधानमन्त्री हुए और उसके एक वर्ष बाद ही वे बम्बई निगम और नगरपालिका परिषद् के सदस्य चुने गये । इस संस्थाकी उन्होंने पाँच वर्ष तक बहुमूल्य सेवा की। श्री नौरोजी १८८५ से १८८७ तक बम्बई विधान परिषद्के सदस्य रहे । भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेसने १८८६, १८९३ और फिर १९०६ में अध्यक्षपदपर चुनकर उनको सम्मानित किया। श्री नौरोजी लन्दनके सेन्ट्रल फिन्सबरी निर्वाचन क्षेत्रके उदारदलीय प्रतिनिधिके रूपमें १८९३ से १८९५ तक ब्रिटिश लोक-सभामें रहे; और भारतीय व्यय इत्यादिसे सम्बन्धित शाही आयोग (रॉयल कमीशन) ' के सदस्यके रूपमें उन्होंने अपने देशके लिए काफी काम किया । सन् १८९७ में उन्होंने वेलबी आयोगके सामने बयान दिया। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेसने जो ब्रिटिश समिति स्थापित की थी उसके वे प्रारम्भसे ही एक उद्यमशील सदस्य और कर्मठ कार्यकर्ता रहे। श्री दादाभाई नौरोजीने जो पुस्तकें लिखीं, वे ये हैं : ‘इंग्लैंड्स ड्यूटी टु इंडिया', 'एडमिशन ऑफ एजूकेटेड नेटिव्ज़ इनटू द इंडियन सिविल सर्विस '; 'फाइनेन्शियल ऐडमिनिस्ट्रेशन ऑफ इंडिया' ; और 'पावर्टी ऐंड अन-ब्रिटिश रूल इन इंडिया', यह अन्तिम तक उनकी कृतियोंमें कदाचित् सर्वाधिक प्रसिद्ध है। सन् १९०६ में आदरणीय दादाभाईने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेसकी अध्यक्षता करनेके लिए स्वदेश-यात्रा की। इसमें उन्हें जो परिश्रम करना पड़ा वह उन जैसे लौह-शरीर और अदम्य उत्साहशील व्यक्तिके लिए भी बहुत अधिक सिद्ध हुआ । सन् १९०६ के कलकत्ता अधिवेशन के बाद श्री दादाभाईने सार्वजनिक जीवनसे लगभग अवकाश ले लिया, और सन् १९०७ में वरसोवामें जाकर बस गये । वरसोवा बम्बईमें मछुओंका एक छोटा-सा गाँव है। वहाँ बैठे हुए वे अब भी भारतके भविष्यको बनाने अथवा बिगाड़नेवाली घटनाओंको गहरी दिलचस्पीके साथ देखा करते हैं। उन्हें जो 'भारतके पितामह' कहकर सम्मानित किया जाता है सो निःसन्देह सर्वथा उचित है ।

[ अंग्रेजीसे ]
इंडियन ओपिनियन, ३-९-१९१०

१. रॉयल कमीशन ऑन इंडियन एक्सपेंडीचर | Gandhi Heritage Portal