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६१. पत्र: मगनलाल गांधीको

वैशाख बदी २ [मई १५, १९११][१]


चि० मगनलाल,

इसके साथ छगनलालके पत्र भेज रहा हूँ। हरिलालके मामलेने बहुतोंको विकल कर दिया है।[२] तुम्हारे मनमें भी अनेक प्रकारकी भावनाएँ उठती होंगी, यह मैं समझ सकता हूँ। लेकिन इतना विचार करना : यदि हरिलाल या मणिलाल या बा को तुम्हारे प्रति असन्तोष हो, अथवा वे तुमपर ताने कसें और इस कारण तुम वहाँसे चले जाना चाहो, तो ऐसा कहा जायेगा कि तुमने अपनेको हमसे अलग माना; और तुम्हारे वैसा करनेपर उनके प्रति और तुम्हारे प्रति अपने कर्त्तव्यका पालन करने में मुझे दिक्कत हो सकती है। यदि तुम्हारी यह धारणा हो कि खुशालभाई छगनलालके प्रति ज्यादा स्नेह रखते हैं, अथवा यह सच भी हो कि वे उसके प्रति ज्यादा स्नेह रखते हैं, तो क्या इस कारण तुम्हें यहाँसे चले जाना चाहिए? और यदि ऐसा लगे कि वे तुम्हारे प्रति ज्यादा स्नेह रखते हैं, तो भी क्या यह उचित होगा कि तुम चले जाओ और इस प्रकार छगनलालका अपकार करो?

तुम्हारे चले जानेसे हरिलाल और मणिलालका अकल्याण ही हो सकता है। हम लोग एक महान प्रयत्नमें लगे हुए हैं। तत्वज्ञानका अनुसंधान कर रहे हैं। यह नहीं कि किसी नई वस्तुकी खोज की जा रही है। हम प्रयोग इस बातका कर रहे है कि जो मनुष्य ज्ञानको आत्मसात् करना चाहता है, उसका आचार-व्यवहार कैसा होना चाहिए। बरसोंकी लगी दीमक साफ करनी है। इसमें विघ्न तो आने ही हैं। इन सब विघ्नोंको ईश्वर दूर करेगा ही, क्योंकि हमारी वृत्ति शुद्ध है। इस समय तुम्हारा कर्तव्य मनमें किसी भी प्रकारका उद्वेग पैदा न होने देना और जो-कुछ रहा हो, उसे तटस्थ वृत्तिसे देखते रहनेका है। जिम्मेदारी सर्फ मेरी है। गलत कदम उठानेका दोष मेरा ही माना जायेगा। यह सम्भव है कि उसके कारण कुछ कालके लिए तुम भी संकटके भागी बनो। किन्तु दोषके फलका भोक्ता तो मैं ही होऊँगा। तुम मेरे ऊपर विश्वास रखकर काम करते रहोगे, तो उसमें तुम्हारा अकल्याण कदापि न होगा।

  1. हरिलाल गांधींके आश्रम छोड़कर चले जानेका वाकया सन् १९११ में हुआ था । उस वर्ष वैशाख बदी २ को मई महीनेकी १५ तारीख थी।
  2. देखिए "पत्र : डॉ० प्राणजीवन मेहताको", पृष्ठ ६४-६५ और “ पत्र मगनलाल गांधीको", पृष्ठ ७५-७६ ।