पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 11.pdf/११३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
७९
पत्र: गो० कृ० गोखलेको


आपके नेतृत्वमें भारतकी जनता द्वारा किये गये प्रयासों और श्री पोलक द्वारा वहाँ तथा श्री रिच द्वारा इंग्लैंड में किये गये अद्भुत कार्यके परिणामस्वरूप हमारे कष्टोंका अन्त ज्यादा शीघ्रतासे हुआ है। लेकिन हमें एक ऐसे हठीले शत्रुसे लड़ना पड़ रहा है कि निरन्तर जागरूकता नितान्त आवश्यक है। मैं इस तथ्यसे अनभिज्ञ नहीं हूँ कि प्रवासी कानूनमें सैद्धांतिक समानता प्राप्त कर लेने से हमारी वास्तविक दशामें कोई प्रकट अन्तर नहीं पड़ता। किन्तु संघर्षने हमें आश्चर्यजनक रूपसे एकताके सूत्रमें बांध दिया है, और निःसन्देह उसके कारण ही हमारी आवाज सम्मानपूर्वक सुनी जाने लगी है। समाजमें आत्मविश्वासकी भावना उत्पन्न हुई है। इसलिए हमें अब जाकर ही यह फुरसत मिली है कि हम अपना ध्यान उन वर्तमान कानूनी निर्योग्यताओं पर केन्द्रित करें, जिनसे हमारे राष्ट्रीय सम्मानपर उतना असर नहीं पड़ता जितना प्रवासियोंकी भौतिक स्थितिपर। उदाहरणार्थ, ट्रान्सवालमें अचल सम्पत्ति रखनेपर जो निषेध है उसे हटाया जाना चाहिए। ट्रामगाड़ियोंके उपयोगकी निर्योग्यता तो इतनी क्षोभकारी है कि उसे बिलकुल सहन नहीं किया जा सकता। यदि हम चाहते हैं कि भारतीय व्यापारी निर्बाध रूपसे अपनी दुकानों और व्यापारके स्वामी बने रहें तो हाल ही में पास किये गये ट्रान्सवालके स्वर्ण कानूनके एक अस्पष्ट खण्डका[१] प्रयोग करके जो दुष्टतापूर्ण प्रयत्न किये जा रहे हैं, उन्हें हर मूल्यपर विफल करना जरूरी है। यह तो रहा ट्रान्सवालके बारेमें। नेटालमें स्वतंत्र गिरमिटिया भारतीयों, उनकी पत्नियों और उनके नन्हें बच्चोंसे, वह लड़की हो या लड़का, अमानुषिक वार्षिक कर वसूल किया जाता है। यह एक ऐसा भार है जो उक्त करकी जरा भी जानकारी रखने वाले प्रत्येक भारतीयकी आत्माको कष्ट देगा। नेटालके विक्रेता परवाना अधिनियममें अभी हालमें थोड़ा-बहुत संशोधन किया गया है। लेकिन इसके बावजूद यह कानून उस उमड़ी घटाकी तरह है जो समाजके सरपर किसी भी समय फट पड़ सकती है। केपमें भी इसी प्रकारका कानून भारतीय व्यापारियोंके अस्तित्वके लिए खतरा बना हुआ है। केपके प्रवासी कानूनकी एक धाराके अनुसार ही बसे हुए भारतीय अधिवासियोंके लिए अनिवार्य है कि वे केपसे अपनी अनुपस्थितिकी दशामें एक अनु- मतिपत्र साथ रखें। इस नियमका उल्लंघन करनेपर अधिवासका अधिकार रद होनेकी व्यवस्था है। यह अनुमतिपत्र वास्तवमें अनुपस्थितिकी अनुमति देनेवाला एक दस्तावेज है। वस्तुतः इस धाराके कारण उनके अधिवासके अधिकार मजाक बनकर रह जाते है। आपसे यह आशा करना तो ज्यादती होगी कि आप इन सब प्रश्नोंपर उपनिवेश मन्त्रीको दिये गये अथवा दिये जानेवाले प्रार्थनापत्रोंको[२] पढ़ेंगे। पर आप अपने किसी

  1. खण्ड १३०, जिसके अन्तर्गत यूरोपीयोंको हिदायत की गई थी कि वे घोषित क्षेत्रोंमें रंगदार लोगोंको बाहोंके शिकमी-पट्टे न दें । सन् १९०८ में, जब यह कानून विधेयक रूपमें ही था, गांधीजीने इसके विरुद्ध ट्रान्सवाल सरकारको प्रार्थनापत्र (देखिए खण्ड ८, पृष्ठ १९३-९४, २८६-८८) भेजा था। किन्तु, तब उन्हें श्सी खण्डसे किसी प्रकारके अनिष्टकी आशंका नहीं थी और उन्होंने उक्त विधेयककी उन्हीं धाराओंका विरोध किया था जिनका एशियाझ्योंपर प्रत्यक्ष असर पड़ता था।
  2. देखिए “प्रार्थनापत्र : उपनिवेश-मन्त्रीको", पृष्ठ ५०-५५ और " अभ्यावेदन : उपनिवेश-मन्त्रीको", पृष्ठ ६८-७२।