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परवानोंकी कलंक-कथा


मुझे अन्दाजसे एक तारीख बताई; जो सही नहीं निकली। किन्तु उन्होंने यह भी कहा था कि कदाचित् संलग्न सामग्रीसे[१] आपका काम निकल सके; यह श्री कैलेनबैक की है। काम हो जानेपर कृपा करके इसे मेरे पास वापस भेज दें।

हृदयसे आपका,
मो० क० गांधी

टाइप की हुई दफ्तरी प्रति (एस० एन० ५५३५) की फोटो-नकलसे।

६८. एक अच्छा उद्देश्य

पाठकोंका ध्यान हम अपने ट्रान्सवाल-सम्बन्धी टिप्पणियोंके साथ छपे एक संक्षिप्त विवरणकी ओर दिलाना चाहते हैं। इसमें हमीदिया इस्लामिया अंजुमनको उस बैठकका[२] जिक्र था जो लन्दनमें एक मस्जिद बनाने तथा अलीगढ़में एक मुस्लिम विश्वविद्यालयकी स्थापनाके लिए चन्दा करनेके सिलसिले में बुलाई गई थी। कहनेकी जरूरत नहीं कि दोनों कार्य स्तुत्य हैं। लन्दनमें एक मस्जिदका निर्माण करना एक पुनीत कर्तव्य है, जिसके पालनमें विलम्ब हो गया है। और अलीगढ़में विश्वविद्यालयकी स्थापना, यदि उसका संचालन उचित रीतिसे किया गया तो, भारतकी जनताके दो बड़े भागोंकी एकतामें मददगार ही हो सकती है।

[अंग्रेजीसे]
इंडियन ओपिनियन,२०-५-१९११

६९. परवानोंकी कलंक-कथा

गत ६ तारीखके अंकमें हमने व्यापारिक परवानोंसे सम्बन्धित एक अपीलका विवरण उद्धृत किया था। यह अपील "नेटाल इंडियन ट्रेडर्स लिमिटेड" की[३] ओरसे डर्बनकी टाउन कौंसिलमें दायर की गई थी। पाठकोंको विदित होगा कि यह संस्था

११-६

  1. यह उपलब्ध नहीं है।
  2. मई १४, १९११ को आयोजित ।
  3. परवाना अधिकारीने डी० के० पटेलके व्यापारिक परवानेको उक्त पेढ़ीके नाम चढ़ानेसे इनकार कर दिया था। उस पेढ़ीने परवाना-अधिकारीकी इस इनकारीके खिलाफ डर्बन नगर-परिषदमें अपील की। परवाना अधिकारीने अपने निर्णयका बचाव करते हुए कहा कि यह नीतियुक्त और एशियाई व्यापारियोंकी स्पर्धासे यूरोपीयोंको बचानेके लिए आवश्यक था। उसका तर्क यह था कि व्यक्ति-विशेषको दिये गये परवानेकी अवधि तो उसकी मृत्युके साथ समाप्त हो जायेगी, लेकिन किसी साझेकी पेढ़ीके परवानेके साथ ऐसी बात नहीं हो सकती, क्योंकि उसमें उत्तराधिकार बराबर कायम रहता है। परिषद्ने अधिकारीके निर्णयको जायज ठहराया । इंडियन ओपिनियन, ६-५-१९११